Saturday, May 21, 2011

फदील अल-अज्ज़वी की तीन कविताएँ


फदील अल-अज्ज़वी की कविताओं के क्रम में आज फिर से उनकी तीन कविताएँ...


















एक ख़त्म होते हुए ग्रह पर 


बहुत बदबूदार हवा हो गई है कमरे के भीतर,
मगर कोई खिड़की नहीं खोलता. 
हम बाएँ हाथों में लिए रहते हैं अपनी किताबें,
मगर कोई हमसे माफी नहीं माँगता.
लाश पड़ी हुई है तहखाने में,
मगर कोई नहीं है रोने वाला.

हमें फिर से आग की खोज करनी होगी 
अपने रिएक्टरों को सुलगाने के लिए. 
अपनी उधारी चुकता करना होगा 
प्रयोगशाला की परखनलियों में 
अपने बच्चे को जन्म देने के पहले. 
हमें अपने निएनडरथल पुरखों को दिलासा देना चाहिए था 
उन्हें पहाड़ों की तरफ 
खदेड़ने के पहले. 

अपने खुशहाल दिनों के लापता जंगल में 
वापसी की कोई उम्मीद नहीं बची अब.

उड़नतश्तरी के शीशे के पीछे से 
दूसरे ग्रह के जीव 
हाथ हिला रहे हैं मेरी तरफ. 

इतिहास की शुरूआत से असंख्य ग्रह और धुंधली आकाशगंगाएं 
इंतज़ार कर रही हैं 
मेरे आगमन का.

फिर, यहाँ मैं क्या कर रहा हूँ आखिर ?
                    :: :: :: 

दावत 

कोई लापता नहीं था. 
केन रसोई में था, अपने चाकू पर सान धरता हुआ 
और नोह बैठक में टेलीविजन पर 
मौसम का हाल देख रहा था. 

वे सब अपनी कारों में आए 
और दावत तक ले जाने वाली 
लम्बी गली में गुम हो गए. 

आवर फेयर लेडी घेरे में नाच रही थी 
और अपनी पारदर्शी पोशाक में से 
अपने अंगों का प्रदर्शन कर रही थी.
हम दूसरे मेहमानों के साथ बैठे 
तलछट तक अपने जाम पीते रहे. 

रात ख़त्म होने पर, 
घर लौटते हुए,
हमने अंधे आदमी को उसकी खोई हुई छड़ी दी  
और हत्यारे को उसकी खूनी कुल्हाड़ी. 

यह भी एक दावत थी,  
दूसरी दावतों की ही तरह. 
                    :: :: ::

मौन जुलूस 

अपनी फटी जेबों में हाथ डाले, 
सड़क से गुजरते हुए,
मैनें देखा कि दुकानों और काफीघरों की शीशे की खिड़कियों से  
वे मुझे शक की नज़र से देख रहे हैं. 
और फ़ौरन बाहर निकलकर वे मेरा पीछा करने लगे. 

मैं जानबूझकर एक सिगरेट जलाने के लिए रुक गया 
और मुड़ा, जैसे कोई हवा रोकने की कोशिश कर रहा हो,
बहाने से इस मौन जुलूस की एक झलक पाने के लिए : 
चोर, बादशाह, हत्यारे, पैगम्बर, कवि 
हर तरफ से दौड़े आ रहे थे 
मेरे पीछे चलने 
और मेरे इशारे का इंतज़ार करने के लिए. 

मैनें ताजुब्ब से अपना सर हिलाया 
और एक प्रचलित गाने की धुन की 
सीटी बजाते हुए चलने लगा, 
यह मानते हुए कि मैं किसी फिल्म की कोई भूमिका निभा रहा हूँ 
और सदा चलते ही जाना है मुझे 
दुखद अंत की ओर. 
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

1 comment:

  1. मुक्तिबोध की अंतरंग दुनिया में बरबस खींच ले जाती है ये कवितायेँ.

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