फदील अल-अज्ज़वी की एक और कमाल की कविता पढ़िए...
मैं खुद को बदलना चाहता हूँ : फदील अल-अज्ज़वी
(अनुवाद : मनोज पटेल)
इधर-उधर हुए
अपने तमाम भारी नुकसानों के बाद
अपनी छोटी सी ज़िंदगी के हारे हुए युद्धों से मिले
खून रिसते तमाम ज़ख्मों के बाद
मुझे पता चला कि कितना कमजोर हूँ मैं.
मैनें बैठकर विचार किया कि मुझे क्या करना चाहिए
अपनी पीड़ित आत्मा की तबाही की मरम्मत के लिए.
मैनें सोचा कि मुझे अपने शरीर के अंगों को एक-एक कर
बदलना पड़ेगा,
कम से कम कुछ को तो जरूर,
अपने आने वाले दिनों को खुशहाल बनाने के लिए.
मुझे लगता है कि मुझे एक नया पम्प चाहिए
अपने ह्रदय के लिए
ताकि मैं जितनी स्त्रियों से चाहूँ, प्रेम कर सकूं.
मुझे टार और निकोटीन छुड़ाए हुए
एक फेफड़े की जरूरत होगी
बारिश के बाद सड़कों को सूंघने के लिए,
और फ़ौलादी ज़िगर की
तकदीर की मार बर्दाश्त करने के लिए,
और नया खून, लाल और सफ़ेद कणों से भरपूर
आने वाले युद्धों में शिकार होने वाले लोगों को
दान देने के लिए.
मैं चाहता हूँ एक ऐसा पेट
जो कृपापूर्वक वह सबकुछ पचा ले जो मैं उसे सौंपू,
अपने बर्फीले पहाड़ों से हम पर हमला करने वाले
असभ्य लोगों को फाड़ डालने के लिए तेज दांत चाहता हूँ मैं,
धोखेबाज़ दोस्तों को गले लगाने के लिए चौड़ी छाती,
ओलम्पिक खेलों को जीतने के लिए लम्बे अंग,
और तपते चुम्बनों के लिए नाज़ुक होंठ.
अगर मैं गंजा हो गया तो क्या फर्क पड़ेगा ?
मेरे बचे-खुचे बालों को
हवा आहिस्ता से वापस संवार देगी.
अपने लीवर और तिल्ली को
मैं ऐसे ही छोड़ दूंगा -
मुझे सचमुच कम से कम खर्च करना है -
और मेरे सर को हर मुसीबत में से
अपना रास्ता वैसे ही तलाश करना पड़ेगा जैसे कि वह हमेशा से करता आया है.
संक्षेप में : मुझे उतना ही खुश रहना होगा
कि मैं अपने जैसा ही लगता रहूँ आखिरकार.
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Hmm
ReplyDeleteNice..
बहुत ही खूबसूरत कविता मनोज जी। शीर्षक और अंतिम पंक्ति को जोड़ें तो कछ ऐसा बनेगा: मैं खुद को बदलना चाहता हूं, कि मैं अपने जैसा ही लगता रहूं आखिरकार।
ReplyDeleteकमाल की कविता पढ़वाई है ..धन्यवाद
ReplyDeleteBohat Bohat Dhanyavad Manoj ji, aap ek bohat hi achchha kaarya kar rahein hain, Kripya isko bhavishya mein jaari rakhein, aisi hummari shubh-kaamna hai....
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