Sunday, May 29, 2011

इस तरह अपनी नींद से नहीं उठते ख्वाब देखने वाले


महमूद दरवेश की एक कविता... 















अब जब कि तुम जाग गए हो, याद करो : महमूद दरवेश 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

अब, जब कि तुम जाग गए हो, याद करो हंस का पिछ्ला नृत्य. 
जब तुम ख्वाब देख रहे थे क्या तुमने देवदूतों के साथ नृत्य किया था ?
क्या तितली ने तुम्हें रोशन किया था जब वह गुलाब के शाश्वत उजाले से जल गई थी ?
क्या फीनिक्स तुम्हें साफ़-साफ़ दिखाई दिया था...
और क्या उसने तुम्हें अपने नाम से बुलाया था ? 
क्या तुमने अपनी प्रेमिका की उँगलियों से 
सुबह होते देखा था ? और क्या तुमने अपने हाथों से 
ख्वाब को छुआ था, या तुमने ख्वाब को अकेले ही ख्वाब देखने दिया था,
तुम कब अचानक अपनी नामौजूदगी के बारे में जान पाए ? 
इस तरह अपनी नींद से नहीं उठते ख्वाब देखने वाले,
वे उद्दीप्त हो उठते हैं,
और अपनी जिंदगियां ख्वाब में पूरी करते हैं...
मुझे बताओ कि किसी जगह तुमने कैसे जिया अपना ख्वाब,
और मैं तुम्हें बता दूंगा कि तुम कौन हो 

और अब, जब कि तुम जाग गए हो, याद करो :
क्या तुमने गलत सुलूक किया था अपनी नींद के साथ ?
अगर हाँ, तो याद करो 
हंस का पिछ्ला नृत्य ! 
                              :: :: :: 

5 comments:

  1. सुन्दर कविता का सुन्दर अनुवाद

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  2. मुझे बताओ कि किसी जगह तुमने कैसे जिया अपना ख्वाब,
    और मैं तुम्हें बता दूंगा कि तुम कौन हो
    ..waah!

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  3. इस तरह अपनी नींद से नहीं उठते ख़्वाब देखने वाले
    वे उद्दीप्त हो उठते हैं ,
    और अपनी जिंदगियां ख़्वाब में पूरी करते हैं ................

    बहुत गहन चिंतन से प्रसूत निष्कर्षों की कविता !
    धन्यवाद मनोज जी सुन्दर अनुवाद एवं प्रस्तुति के लिए !

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