नाजिम हिकमत की यह दो कविताएँ उनकी पत्नी मुनव्वर के साथ खतोकिताबत की शैली में हैं. 1950 में जबरदस्त अंतर्राष्ट्रीय विरोध के बाद रिहा हुए नाजिम ने दुबारा गिरफ्तारी से बचने के लिए और हत्या के दो प्रयासों के बाद चुपचाप एक मोटरबोट से तुर्की छोड़ दिया और किसी तरह वे मास्को पहुंचे. मगर उनकी पत्नी मुनव्वर और पुत्र मेमेत को तुर्की छोड़ने की इजाज़त नहीं मिली. हिकमत ने अपने निर्वासन का कुछ समय बुल्गारिया में भी बिताया, जहां आकर वे खुद को अपने देश के बहुत करीब पाते थे. यहाँ के लोग, यहाँ की महक, खान-पान और भाषा उनके अपने देश तुर्की से बहुत मिलती-जुलती थी. यहाँ सोफिया और काला सागर के तटवर्ती शहर वर्ना में उन्होंने अपनी कुछ सर्वश्रेष्ठ कविताएँ लिखीं. काला सागर के उस पार उनका देश तुर्की था, और अपनी एक कविता में तो वे इसपार वर्ना में खड़े हो अपने बेटे मेमेत को आवाज़ लगाते हैं - 'क्या तुम मेरी आवाज़ सुन रहे हो मेमेत बेटे...'
फिलहाल यह दो कविताएँ...
मुझे मुनव्वर की एक चिट्ठी मिली, उसने लिखा
नाजिम, मुझे उस शहर के बारे में बताओ जहां मेरा जन्म हुआ.
छोटी ही थी जब सोफिया से चली आई मैं,
मगर लोग बताते हैं कि मैं बुल्गारियाई बोल लेती थी...
कैसा शहर है यह ?
मेरी माँ बताया करती थीं
कि छोटा सा शहर है सोफिया,
अब तो यह बड़ा हो गया होगा :
सोचो तो ज़रा,
इकतालीस बरस बीत गए.
वहां एक 'बोरिस पार्क' हुआ करता था.
मेरी आया सुबह-सुबह मुझे वहां ले जाया करती थी.
शायद सोफिया का सबसे बड़ा पार्क था वह.
वहां की अपनी कुछ तस्वीरें अब भी मेरे पास मौजूद हैं :
एक पार्क जहां ढेर सारी धूप-छाँव हुआ करती थी.
जाकर बैठना वहां.
क्या पता तुम संयोग से उसी बेंच पर जा बैठो जिसके इर्द-गिर्द मैं खेला करती थी.
मगर बेंचें चालीस साल तक कहाँ टिकती हैं ?
वे सड़-गल गई होंगी और उन्हें बदल दिया गया होगा.
पेड़ सबसे बेहतर होते हैं,
वे हमारी याददाश्त से भी अधिक समय तक जीवित रहते हैं.
सबसे पुराने शाहबलूत के पेड़ के नीचे जाकर बैठना किसी दिन.
भूल जाना सबकुछ,
हमारे विछोह को भी,
और याद करना मुझे, सिर्फ मुझे.
11 जून 1957
वर्ना
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मैनें मुनव्वर को एक चिट्ठी भेजी, मैनें लिखा
पेड़ अब भी खड़े हैं, मगर बेंचें ख़त्म हो चुकी हैं,
'बोरिस पार्क' अब 'फ्रीडम पार्क' हो गया है,
शाहबलूत के पेड़ के नीचे मैं सिर्फ तुम्हें याद करता रहा
सिर्फ तुम्हें, मेरा मतलब मेमेत को भी,
सिर्फ तुम्हें और मेमेत को, मेरा मतलब अपने वतन को...
11 जून 1957
वर्ना
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(अनुवाद : मनोज पटेल)
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