Tuesday, May 3, 2011

निकानोर पार्रा की दो कविताएँ


निकानोर पार्रा की कविताओं के क्रम में आज उनकी दो कवितायेँ...












आत्मा को शान्ति मिले 

आत्मा को शान्ति मिले -- पक्का 
मगर इस सीलन का क्या करें ?
                           और यह जो काई लगी है ?
                                         और कब्र के पत्थर का बोझ ?
और नशे में धुत्त कब्र खोदने वाले ?
और लोग जो गुलदस्ते चुरा ले जाते हैं ?
और ताबूतों को कुतरते चूहे ?
और ये कमबख्त कीड़े 
चारो ओर रेंगते हुए 
मौत मुहाल किए हुए हैं वे हमारी 
या क्या तुम्हें सचमुच यही लगता है 
कि हमें नहीं पता क्या चल रहा है ...

बड़े आराम से कह दिया तुमने कि आत्मा को शान्ति मिले 
जबकि तुम्हें पता है कि यह कमबख्त नामुमकिन है 
बस बोल देते हो बिना सोचे-विचारे यूं ही 

और तुम्हारी सूचना के लिए 
हमें पता है कि क्या चल रहा है 
मकड़ियां दौड़ लगा रही हैं हमारे पैरों पर 
शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते हम 

चलो फालतू की बकवास बंद करें 
जब तुम खड़े होओ एक खुली हुई कब्र के सामने 
तो यह वक़्त बिना लाग-लपेट के बात करने का होता है :
तुम अपने गम गलत कर सकते हो शराब में 
हम तो फंसे हुए हैं इस गड्ढे के तल पर.  
                    :: :: ::

कुछ प्रस्ताव 

मैं दुखी हूँ मेरे पास खाने के लिए कुछ नहीं है
कोई मेरी परवाह नहीं करता 
भिखमंगे नहीं होने चाहिए 
यही बात मैं सालों से कहता आ रहा हूँ 

मैं प्रस्ताव करता हूँ कि तितलियों की बजाए 
बागों में केकड़े घूमने चाहिए 
-- मुझे लगता है कि यह बहुत बेहतर रहेगा --
क्या तुम भिखमंगों के बिना एक दुनिया की कल्पना कर सकते हो ?

मैं प्रस्ताव करता हूँ कि हम सभी कैथोलिक हो जाएं 
या कम्युनिस्ट या जो भी आप चाहें 
यह केवल शब्दों का खेल है 
मैं प्रस्ताव करता हूँ कि हम पानी को शुद्ध करें 

अपनी भिखमंगों वाली छड़ी द्वारा दिए गए अधिकार से 
मैं प्रस्ताव करता हूँ कि पोप मूंछे रख लें 

भूख की वजह से मैं बेहोशी महसूस करने लगा हूँ 
मैं प्रस्ताव करता हूँ कि वे एक सैंडविच मुझे दे दें 
और एकरसता को ख़त्म करने के लिए मेरा प्रस्ताव है 
कि सूरज को पश्चिम में उगना चाहिए. 
                    :: :: ::

(अनुवाद : मनोज पटेल) 

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