फदील अल-अज्ज़वी की दो कविताएँ...
आश्चर्य
फ्रान्ज़ काफ्का एक सुबह जगे तो उन्होंने पाया कि वे अब भी फ्रान्ज़ काफ्का ही हैं : उनके दोनों हाथ उन्हीं के थे, दोनों पैर, हाथ, चेहरा, मुंह, सब कुछ उन्हीं का. और सबसे ख़ास बात तो यह कि वे अब भी प्रेम करने के काबिल थे. उन्होंने रोज की तरह जल्दी-जल्दी नाश्ता किया, अपना सलेटी रंग का सूट पहना और काम के लिए निकल पड़े.
ठीक इसी क्षण उन्होंने वह दृश्य देखा जिससे वे दहल गए : सब के सब लोग एक जगह से दूसरी जगह की तरफ रेंगते, बड़े से कीड़े में तब्दील हो चुके थे. अपना इतिहास भूल चुके वे सब अपनी नई ज़िंदगी से खुश थे. उन्होंने बच निकलना चाहा, मगर हजारों ग्रेगर सामसाओं ने उन्होंने चारो तरफ से घेर लिया और आपस में काना फूसी करने लगे :
यह अजीब सा कीड़ा हमारे शहर में कहाँ से आ गया, और कैसे ?
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कीड़ा
एक सुबह, सभी जीवित प्राणियों की तरह, ग्रेगर सामसा जगा
और अपने आपको एक कीड़े में बदला हुआ पाकर हैरान रह गया.
तो उसने अपना बदला लेने के लिए
रात में काफ्का के कमरे में जाकर
उनके उपन्यास चट कर जाने के बारे में सोचा.
नाराज मत हो, घरेलू कीड़े ग्रेगर सामसा.
अब भी एक पलंग है जिसके नीचे तुम छिप सकते हो
और कोने हैं तुम्हारे रहने के लिए
और रोटी के टुकड़े जिन्हें तुम चुरा सकते हो रात में रसोई से.
और अंत में, करना ही क्या है ?
हो तो तुम ग्रेगर सामसा ही आखिरकार.
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ग्रेगर सामसा : काफ्का की कहानी मेटामारफोसिस का एक पात्र
(अनुवाद : मनोज पटेल)
waah!
ReplyDeleteयह अजीब सा कीड़ा हमारे शहर में कहाँ से आ गया
ReplyDeleteक्या खूब कविता लाते हैं आप मनोज भाई | अनुवाद से अधिक तो आपके चयन के कायल हैं
बहुत सुंदर और अनोखी कवितायें !
ReplyDeleteलाजवाब!!!!!!
ReplyDeletemai ab bhi prem karne ke qabil hun...........
ReplyDeletetabhi to chubhti hai ye kavetayen
मनोज जी..कविताओं का चयन..अनुवाद सब कुछ लुभाता है..अगर किसी कारणवश न पढ़ सकूं तो सुकून के पल तलाशती हूँ...कब मिलें और आपकी पोस्ट्स देखूं..आप बधाई के पात्र हैं..शुभकामनायें..
ReplyDeleteअद्भुत और सुन्दर कवितायें !
ReplyDeleteसुन्दर चयन और अनुवाद के लिए बधाई !