Wednesday, June 6, 2012

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट : दो बूँदें

ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट की एक और कविता...    

 
दो बूँदें : ज़िबिग्न्यू हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

          जब जंगल जल रहे हों, तो गुलाबों के लिए शोक करने का वक़्त कहाँ. 
                                                                                 - जूलियस स्वेवस्की 

जंगलों में आग लगी थी -- 
फिर भी उन्होंने 
बाहों में भर लिया था अपनी गरदनों को 
गुलदस्तों की तरह 

लोग भागे पनाहगाह की तरफ -- 
उसने कहा ऐसे हैं मेरी पत्नी के बाल 
कि छिपा जा सकता है उनकी गहराइयों में 

एक कम्बल के नीचे 
वे फुसफुसाते रहे निर्लज्ज शब्द 
वही प्रेमियों का कीर्तन 

जब स्थिति ज्यादा बिगड़ गई 
वे कूद पड़े एक-दूसरे की आँखों में 
और मूँद लिया उन्हें जोर से 

इतनी जोर से कि उन्हें एहसास भी न हुआ लपटों का 
जब वे पहुँचने लगीं उनकी बरौनियों तक 

वे अंत तक रहे बहादुर 
वे अंत तक रहे वफादार 
अंत तक रहे वे वैसे ही 
एक चेहरे के कगार पर ठहरी 
दो बूंदों की तरह 
                    :: :: :: 
कविता के पूर्व स्वेवस्की का उद्धरण अनुवादकों चेश्वाव मिवोश एवं पीटर डेल स्काट की तरफ से. 

7 comments:

  1. हर बार एक नए और गहरे एहसास से गुजारते हैं आपके प्रयास..

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  2. हर बार एक नए और गहरे एहसास से गुजारते हैं आपके प्रयास..

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  3. बहुत गहराई है एक-एक बिम्ब में. धन्यवाद मनोज.

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  4. एक चेहरे के कगार पर ठहरी
    दो बूंदों की तरह
    सुन्दर!

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  5. मैं सहमत नहीं हूँ ! उन्हें बचाना चाहिए था एक दूसरे को ! आखिरकार आँखें का एक चेहरा होता है और चेहरे का एक शरीर !

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  6. मनोज भाई एसी रचनाओं से यह मुद्दा उजागर होता है की कविता शब्दों के जरिये बयां होती है पर क्या केवल शब्दों के जरिये पायी जा सकती है...? बहुत बहुत धन्यवाद एसे अनुभव के लिए.

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