Thursday, June 2, 2011

फदील अल-अज्ज़वी की कविताएँ


1963 में बाथ पार्टी के सत्ता में आने के बाद फदील अल-अज्ज़वी इराक के उन हज़ारों बुद्धिजीवियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं में से एक थे जिन्हें बदनाम अल-हिल्ला जेल में डाल दिया गया था. जेल में जब क्षमता से ज्यादा कैदी हो गए तो अधिकारियों ने फांसी देने के कमरे को छंटाई घर बना दिया. उस कमरे में ले जाए जाने वाले बंदियों के बारे में तरह-तरह की बातें प्रचलित थीं. दरअसल वहां ले जाकर कैदियों को मार दिया जाता था. फदील अल-अज्ज़वी उस समय चौबीस साल के थे और उन्होंने अपनी जीवनी 'अल-रूह अल-हया' में उस दौर का दिल दहला देने वाला खाका खींचा है. 










जेल में 

चाभी के छेद से चीखने की हलकी आवाजें आ रही थीं. जैतून की लकड़ी से बनी चहारदीवारी पर हथियारबंद फौजियों की परछाईं पड़ रही थी. आधीरात के वक़्त एक संतरी आया. उसने कुछ नाम पुकारे : वे सभी डर से कांप रहे थे. वह चिल्लाया, "चलो !" 

नौजवान लड़का अपनी माँ को याद कर रहा था. "मेरे जूते कहाँ हैं," उसने संतरी से पूछा. "जूते-वूते छोड़ो, जल्दी करो !" और वे चले गए. आखिरकार रात की आवाज़ सन्नाटे में खो गई. 

फिर हमने अँधेरे को चीरती हुई गोली की दस आवाजें सुनीं. मैं मौन खड़ा हो गया और यादगार में उसके जूते पहन लिए. 
                      :: :: :: 

खुशी 

"उन्होंने मेरे लिए यह खिड़की छोड़ रखी है जिससे मैं पेड़ों को देखता रह सकूं,"
जेल की अपनी कोठरी की तरफ बढ़ते हुए कवि ने खुद से कहा.
उन्होंने एक बढ़ई बुलवाकर खिड़की को बंद करवा दिया. 

"कितनी खुशी की बात है ! हवा से पेड़ों के हिलने की आवाज़ सुनना ही काफी होगा," 
कवि ने कहा.
उन्होंने एक लकड़हारे को बुलवाकर पेड़ ही कटवा दिया. 

"हवा की आवाज़ ही मेरे लिए बहुत है,"
कवि ने कहा.
उन्होंने दीवालें इतनी ऊपर उठवा दीं कि हवा उसे पार ही न कर पाए.

"यही बहुत है कि मैं ज़िंदा हूँ." 

उन्होंने अहाते में एक फांसी का तख्ता बनवा दिया.
कवि हंसा,
"अपनी मौत की सीढियां चढ़ते हुए,
मैं लिखूंगा कविताएँ भविष्य की स्मृति में." 
                    :: :: ::

(अनुवाद : मनोज पटेल) 

3 comments:

  1. आतातायी सत्ता आज तक सृजनात्मक व्यक्ति के इस indomitable spirit से पार पाने का कोई रास्ता नहीं निकाल सकी है। दूसरी कविता "खुशी" को पढ़ते हुए रघुवीर सहाय और मिलान कुन्देरा की याद आती रही।

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  2. कवि की आत्मा अमर है अथाह है मरकर भी वह जिन्दा है... इतनी सुंदर कविता पढवाने के लिये आभार !

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  3. वाह ! क्या बात है !! बेहद ही अच्छी रचना से रूबरू करवाया आपने सम्मानीय मनोज जी. अनुवाद में हूबहू फदील अल-अज्ज़बी की रूह को उतर दिया. बेहद अच्छी लगी कविता. धन्यवाद, आभार !

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