इराकी कवि महदी मुहम्मद अली 70 ' के दशक से ही निर्वासन में रह रहे हैं. उनकी कविताएँ ईराक और अरब की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. निर्वासन की पीड़ा उनकी कविताओं की विशेषता है.
जब शहर एक बड़ी सी जेल हो जाए
तुम्हें होना पड़ेगा
एक धारदार तलवार की तरह सतर्क
गेहूं के एक दाने की तरह सरल
एक ऊँट की तरह धैर्यवान.
[1979]
* * *
उड़ान
वह अपने साथ ले जा रहा था
सिर्फ
अपने कागज़ात,
अपनी सावधानी,
एक दोस्त की विदाई,
एक इतना छोटा सूटकेस जो नज़र ही न आए,
और अपनी आशंकाएं कि सड़क क्या कुछ छिपा सकती थी.
[1979]
* * *
मातृभूमि
ऐ नन्हें पेड़ जिसे रोपा था मैनें कुछ साल पहले,
क्या हमारे आँगन की घास अब भी याद करती है मुझे ?
और चहारदीवारी की वह दरार,
क्या अब भी वैसे ही भरी रहती है झांकते बच्चों की आँखों से ?
ऐ जवां स्त्री जिसके प्यार में गुम हो गया था मैं,
क्या अब भी तनहा है मेरा कमरा,
मातृभूमि की खामोशी में लोटता हुआ,
मातृभूमि जो छटपटा रही है युद्ध की राख में,
युद्ध जो निगलता जा रहा है स्मृतियाँ ?
[1981]
* * *
विरासत
विरासतें कोई नहीं थीं.
अचानक उन्होंने एक फर्जी गौरव ओढ़ लिया,
जो फैला था सदियों पहले डायनासारों तक.
[1979]
* * *
देश निकाला
कैसे गहरे गड्ढे ने
ढँक लिया था मेरे और मेरी माँ के बीच की दूरी को
वह बिछड़ना बिना अलविदा कहे ही
जैसे मैं जा रहा था सिर्फ पानी पीने के लिए
या पोछने के लिए अपने हाथ !
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लाजवाब .खासकर ''विरासत '',,,सभी कविताये ..
ReplyDeleteachchhi kavitayen...
ReplyDeletesheshnath
सचमुच होना तो पड़ेगा धारदार तलवार की तरह सतर्क और गेहूं के दाने की तरह सरल...
ReplyDeleteनिर्वासन की पीड़ा से उपजी महदी मोहम्मद अली की कवितायें छोटी हैं मगर गहरा असर छोड़ती हैं.
ReplyDeleteबहुत दर्द बिखरा पड़ा है इन कविताओं में ! अपनी मातृभूमि की यादों में गुजरता बेरहम वक़्त ! आभार मनोज जी ,प्रस्तुति के लिए !
ReplyDeleteबहुत अच्छा संग्रह
ReplyDeleteदेश निकाला..touching...
ReplyDeleteसुंदर अनुवाद !
ReplyDeleteहूक भरी संवेदनाएँ !!
bahut marmik kavitaen hain.. manoj , hardik badhai.
ReplyDeletegahari chot karati hui hain ..
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