Wednesday, June 15, 2011

निज़ार कब्बानी : कविता का एक लिबास


आज निजार कब्बानी की कविता 'सौ प्रेम पत्र' से एक कविता पढ़ते हैं... 













सौ प्रेम पत्र : 
निज़ार कब्बानी 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

                    ~ 1 ~ 
मैं तुम्हारे लिए अलग शब्द लिखना चाहता हूँ 
सिर्फ तुम्हारे लिए ईजाद करना चाहता हूँ नई भाषा 
सही नाप की हो जो तुम्हारी देंह 
और मेरे प्रेम के लिए. 
* * * 

मैं शब्दकोष से बाहर निकल जाना चाहता हूँ 
और छोड़ देना चाहता हूँ अपने होंठ. 
आजिज़ आ चुका हूँ अपने मुंह से 
और चाहता हूँ एक नया मुंह 
जो बदल सके 
चेरी के किसी पेड़ या माचिस की डिबिया में,
ऐसा मुंह जिससे शब्द निकलें वैसे ही  
जैसे अप्सराएं निकलती हैं समुन्दर से,
जैसे जादूगर की टोपी से निकलते हैं चूजे. 
* * *

मेरी सारी किताबें ले लो 
जो पढ़ीं थीं बचपन में, 
स्कूल की मेरी सारी कापियां ले लो,
चाक,
पेन,
और ब्लैकबोर्ड ले लो,
मगर सिखला दो मुझे एक नया शब्द 
मेरी महबूबा के कानों से 
एक झुमके की तरह लटकने के लिए. 
* * *

मैं नई उंगलियाँ चाहता हूँ 
अलग तरह से लिखने के लिए, 
जहाज के मस्तूल जैसी ऊंची,
और जिराफ की गरदन जैसी लम्बी 
ताकि सिल सकूं अपनी जान के लिए 
कविता का एक लिबास.
* * * 

तुम्हारे लिए एक अनूठी वर्णमाला बनाना चाहता हूँ. 
जिसमें मैं चाहता हूँ 
बरसात की लय, 
चंद्रमा की मिट्टी,
धूसर बादलों की उदासी,
और पतझड़ के पहियों के नीचे दबी 
विलो के पेड़ की गिरी हुई पत्तियों का दर्द. 
                    :: :: ::  

6 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता और बढ़िया अनुवाद

    ReplyDelete
  2. निज़ार कब्बानी की इस कविता के बढिया अनुवाद के लिए बधाई मनोज जी।
    'कविता का एक लिबास' अस्वाभाविक को स्वाभिक बनाने की, व्यक्ति मन की उड़ान की, उसकी कल्पना की दौड़ की कविता है, जिसमें वह हमारा ध्यान समुद्र से निकलती अप्सराओं और जादूगर की टोपी से निकलते चूजों की ओर इस चाह से आकृष्ट करना चाहती है कि सबकुछ मूंह से निकले शब्दों की तरह स्वाभाविक हो। वह अपने अब तक श्रेय को प्रेमिका के कानों में लटकते झुमकों के सौंदर्य की तरह सामने रखना चाहती है। कविता की उर्जस्विता को जहाज के मस्तूल सी या जिराफ की गर्दन की ऊंचाई से जोड़कर देखना एक नया अनुभव है जो उसे प्रकृति और मनुष्य कर्म की श्रेछ्ठता से जोड़ती है।
    इसकी अंति पंक्तियां प्रभावित करती है -
    "तुम्हारे लिए एक अनूठी वर्णमाला बनाना चाहता हूँ.
    जिसमें मैं चाहता हूँ
    बरसात की लय,
    चंद्रमा की मिट्टी,
    धूसर बादलों की उदासी,
    और पतझड़ के पहियों के नीचे दबी
    विलो के पेड़ की गिरी हुई पत्तियों का दर्द."

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर कविता और बढ़िया अनुवाद|

    ReplyDelete
  4. prem kee abhivyakti ke liye aise sadhno aur varnmalla kee talash kitni prem bhari hai

    ReplyDelete
  5. Naie Bhasha Naye rang dhang se jab kavita likhi jatee hai to wo kavita ka umda libaas ban jati hai

    ReplyDelete

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...