अडोनिस की दो और कविताएँ... 
हुसैन मस्जिद के लिए एक आईना 
क्या तुम्हें नहीं दिखते कुबड़े पेड़ 
नशे में चूर, धीरे-धीरे 
जाते हुए 
इबादत के लिए?
क्या तुम्हें नहीं दिखती नंगी तलवार, 
और एक निशस्त्र जल्लाद 
रोता 
और चक्कर लगाता हुआ हुसैन मस्जिद का?  
                    :: :: :: 
हर रोज़ आशिक की देंह 
घुल जाती है हवा में, खुशबू बन जाती है 
चक्कर खाते फैलती हुई, 
और याद दिलाती हुई सभी इत्रों की. 
वह आता है अपने बिस्तर के पास 
ढँक देता है 
अपने ख़्वाबों को, ख़त्म और इकट्ठा होता है 
लोबान की तरह. 
उसकी शुरूआती कविताएँ जैसे तकलीफ में कोई बच्चा 
पुलों की भूलभुलैया में भटकता हुआ.
उसे नहीं पता कि कैसे रहा जाए उनके समुन्दर में,
और नहीं पता कि कैसे पार किया जाए उसे. 
                    :: :: :: 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

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