Monday, June 20, 2011

फदील अल-अज्ज़वी की कविताएँ


आज फदील अल-अज्ज़वी की तीन कविताएँ... 













भूत के साथ एक रात 

एक बार ट्रान्सिल्वानिया के एक शराबघर में --
शाम के वक़्त --
मैं एक दुबले-पतले, लम्बे से शख्स से मिला 
वह हैट लगाए हुए 
और काली सिल्क का एक लबादा पहने हुए था.
उसने बताया कि उसे काउंट ड्रैकुला के नाम से जाना जाता है 
और देर रात डिस्को से घर लौट रही 
खूबसूरत जवान लड़कियों का शिकार करने के लिए 
वह अभी-अभी अपने शानदार ताबूत से बाहर निकलकर आ रहा है. 

हालांकि मुझे उसपर यकीन नहीं हुआ,
उसने अपने आयरिश सर्जक 
ब्राम स्टोकर के सम्मान में 
मुझे रेड वाइन के एक जाम के लिए 
अपने तहखाने में आने की दावत दी. 
जब उसने अपना हैट उतारा 
और अपने दांत निकाले हुए मेरी तरफ निहारा,
मैनें देखा कि मकड़ियां उसके बालों में आज़ाद घूम रही थीं 
और उसके दांतों से खून चू रहा था. 

मुझे पता नहीं कि मैं कैसे उससे बच पाया 
और कौन सी छड़ी की मदद से 
सुनसान रास्तों पर अपना पीछा कर रहे 
उसके भेड़ियों को मैनें भगाया! 
क्या वह प्रोफ़ेसर वैन हेल्सिंग थे 
मुझे बचाने के लिए जो दौड़े चले आए? 
या शायद किसी ने 
लहसुन की एक डोरी मेरे गले में डाल दी?
या वह प्यारी लूसी थी 
जिसने काले चमगादड़ का रूप धर लिया 
और उसे फुसला ले गई 
धुंध में डूबे 
शहर के उजाड़ कब्रिस्तान में? 

फिलहाल मुझे बस इतना याद है कि 
खौफ की इतनी लम्बी रात के बाद 
जब सुबह जागा मैं, 
मैनें खुद को बैठक के सोफे पर 
गुड़ी-मुड़ी अवस्था में पाया,
जबकि ड्रैकुला अभी तक मुझे खोजता हुआ 
टेलीविजन पर चीख रहा था.

मगर तभी, अचानक - खुदा का शुक्र है - खिड़की से 
सूरज की एक किरण चमकी 
और उसको जला दिया. 
                    :: :: ::  

अजनबी शख्स 

हमेशा से हम बेफिक्र रहे आए हैं 
अपने दिनों के प्रति,
रात में उन्हें फेंकते हुए 
जैसे कुँए में कंकड़. 

हमेशा एक अजनबी शख्स निकल कर आता है कुँए में से,
पानी से तर-बतर, 
बैठता है उसकी जगत पर 
और लौटा देता है हमें 
जो हमने गँवा दिया था. 
                    :: :: ::  

राजनैतिक बंदी 

एक तालाबंद मातृभूमि के 
एक तालाबंद रेगिस्तान में 
एक तालाबंद जेल के 
एक तालाबंद दरवाज़े के पीछे,
एक इंसान को बेड़ियों से बांधकर रखा जाता है :
हममें से कोई उसे नहीं जानता.

यातना देने वाले शायद उसे ठोकर मारें,
सिपाही उसका मजाक उड़ाएं, 
यहाँ तक कि उसके साथी भी उसे नकार दें.
समय बिताने के लिए हो सकता है वह अपनी दाढ़ी बढ़ा ले.
शायद पीत पत्रकार उसे बदनाम करें,
उसके नाम का कभी जिक्र भी न करें 
या रात में शैतान की दीवार पर 
उसका नाम लिख दें. 

मगर बेड़ियों में कैद अपनी कोठरी के अँधेरे में 
जल्लादों का सामना करते हुए,
किसी रहस्यमय गीत की तरह 
नजदीक आती क्रान्ति के साथ एकजुट,
वह नष्ट कर सकता है दुनिया की सारी जेलों को    
और आज़ाद करा सकता है हमें
दहशत की विरासत से,  
इससे पहले कि बहुत देर हो जाए. 

आज रात भले ही बंधा हुआ और घायल है, 
कल उठेगा वह 
अपना इतिहास बताने के लिए. 
                     :: :: ::  

(अनुवाद : मनोज पटेल)

4 comments:

  1. Badhiya..
    Teesree bahut sashakt..

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  2. सभी सुन्दर हैं .
    आज ही HBO में 'वैन हेल्सिंग' आ रही थी ..दूसरी - तीसरी बार देखने के बाद यहाँ आयी तो यहाँ भी टकरा गए प्रोफेसर साहब ! :-)

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  3. अनुवाद अच्छे हैं ,मनोज जी ! पहली कविता कुछ लघु कथा सी लगी ,बाकी दोनों कवितायेँ बहुत अच्छी हैं !

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  4. जीवंत कविताएं... पहली कविता लोमहर्षक है, भूत के दृश्‍य के कारण नहीं बल्कि अपने कथ्‍य के चलते... शेष दोनों विचार-स्‍पंदित... आभार और बधाई...

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