फ़राज़ बयरकदार की एक और कविता...
जब तक तुम हो, मैं हूँ : फ़राज़ बयरकदार
(अनुवाद : मनोज पटेल)
तुम भीतर आ सकते हो
बगैर इजाजत
और बगैर इजाजत जा भी सकते हो
जब तक खुला हुआ है मेरा दिल
और मैं रह सकता हूँ तुम्हारा कुबूलनामा
जब तक तुम हो मेरी माफी,
तुम्हारा सवाल है
मेरा जवाब,
तुम्हारी बारिशें हैं...
मेरी बिजली की कौंध,
तुम्हारा समय...
मेरा स्थान -
तो क्या मुझे माफी मांगनी होगी
अगर अँधेरे में घिरी है
तकदीर मेरी
और मेरी ज़िंदगी घिरी है कविता से ?
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इस कविता को पढ़ते हुए मरीना की डायरी के पन्ने आँखों के सामने खुल गए हैं. कोई बंदिश नहीं, कोई दीवार नहीं, कोई आग्रह भी नहीं...कोई माफ़ी भी किसलिए..
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