फदील अल-अज्ज़वी की दो कविताएँ... 
जब उन्होंने मुझे जेल की कोठरी में डालकर ताला जड़ दिया 
एक गुलाम लड़की दीवार से बाहर आई. 
उसने मुझे अपनी दास्ताँ सुनाई,
अपने दिल की सुनहरी चाभी सौंपी 
और मेरे होंठों पर एक निराश चुम्बन छोड़ते हुए 
गायब हो गई.
उस चाभी के बारे में मैं भूल गया. 
सालों बीत गए 
जब मैनें दुबारा आँखें खोलीं 
और अपने हाथों में चाभी देखा.
बिना किसी उम्मीद के मैनें ताले में चाभी फिराई 
और ताला खुल गया.
दरवाजे के बाहर मैनें देखा 
वह बारिश में भीगती खड़ी थी 
चुपचाप 
अभी तक मेरा इंतज़ार करते हुए.  
                    :: :: ::  
कैदी नंबर 907 
जेल की मेरी कोठरी में वक़्त का पहिया 
थम गया है. मैं इसके अँधेरे में दाखिल होता हूँ 
ऐसे निर्वासित बादशाह की तरह 
जो रात की दहलीज पर ठहरा हुआ है.  
मैं बेवकूफ लड़कियों और 
यूनिवर्सिटी की औरतों के प्रेम में गिरफ्तार हूँ 
जिन्हें हमदर्दी है बच्चों की खामोशी 
और कैदियों की तकलीफ से. 
अपनी कोठरी में 
मुझे तलाश है प्रेम के एक लमहे की 
दुनिया के मुंह पर.  
                    :: :: :: 
(अनुवाद : मनोज पटेल)


बहुत सुन्दर ... जेल में बंदी हो कर ये दर्द कविता में बहा ... उम्दा
ReplyDeleteकैदखाने में आदमी अपने बेसिक इंस्टिंक्टस में सिमट जाता है ,सारे चोंचलों से दूर ! अच्छी कविताओं का सुन्दर अनुवाद हुआ है ! मनोज जी को बधाई ! धीरे-धीरे विश्व की कालजयी रचनाओं का एक वृहद् कोष तैयार कर रहें हैं आप ! इसे पुस्तक रूप दें !
ReplyDeleteआपके द्वारा अनुदित कविताओं में मूल कविता का सा आस्वाद मिलता है. श्रेष्ठ विश्व कविता से रूबरू कराने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद .
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