Thursday, June 30, 2011

जैसे सूरज लिखता है अपना इतिहास


फिर से अली अहमद सईद असबार 'अडोनिस' की कविताएँ... 

 

तलाश 

. . . एक चिड़िया 
अपने पंख फैलाती हुई --                                      क्या वह डरी हुई है 
                    कि आसमान गिर पड़ेगा                   या फिर उसके पंखो 
                    के भीतर की हवा कोई किताब हो गई है ? 
                                                                            गरदन 
                    रोके हुए है क्षितिज को  
                    और पंख, शब्द हैं 
                    एक भंवर में तैरते हुए . . . 
                    :: :: :: 

कविगण 

कोई ठिकाना नहीं उनके लिए,                           वे गरम किए रहते हैं 
                    धरती की देंह,                               अन्तरिक्ष के लिए 
                    बनाते हैं वे                                    उसकी चाभी       -- 
                                        वे नहीं बनाते 
                                        कोई कुनबा               या कोई घर 
                                        अपने मिथकों के लिए,                       --  
वे लिखते हैं उन्हें 
जैसे सूरज लिखता है अपना इतिहास,                                         -- 
बेठिकाना . . . 
                    :: :: :: 

बच्चे 

बच्चे पढ़ते हैं वर्तमान की किताब, और बोलते हैं,
                    यह वो समय है जो विकसित होता है 
                    क्षत-विक्षत अंगों के गर्भाशय में. 
वे लिखते हैं, 
यह वो समय है जिसमें हम देख रहे हैं 
कि कैसे धरती को पोसती है मौत
और कैसे पानी धोखा देता है पानी को. 
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल) 

अडोनिस की तीन कविताएँ


अडोनिस की तीन कविताएँ... 
















पूरब का पेड़ 

मैं एक आईना हो गया हूँ.
सारी चीजों के अक्स दिखते हैं मुझमें. 
तुम्हारी आग में मैनें बदल दी है पानी और पौधे की रस्म.
बदल दी है आकृति, आवाज़ और पुकार की. 

मैं तुम्हें दो रूपों में देखने लगा हूँ, 
तुम और मेरी आँखों में तैरता यह मोती. 
प्रेमी हो गए हैं हम, पानी और मैं.
मेरा जन्म हुआ पानी के नाम पर 
और पानी का जन्म हुआ मेरे भीतर.
हम जुड़वा हो गए हैं.   
                    :: :: :: 

आग का पेड़ 

पत्तियों का एक जत्था 
इकट्ठा हुआ एक झरने के आस-पास.
उन्होंने खुरच दी आंसुओं की जमीन 
जब पानी को पढ़कर सुनाई 
आग की किताब. 

मेरे जत्थे ने मेरा इंतज़ार नहीं किया.
वे चले गए,
कोई आग नहीं,
कोई सुराग नहीं. 
                    :: :: :: 

उदासी का पेड़ 

पत्तियाँ गिरती हैं और स्थिर हो जाती हैं लेखन की खाई में,
उदासी का फूल संभाले हुए 
बात के 
गूँज बन जाने से पहले 
अँधेरे की छाल के बीच जोड़ा बनाते हुए. 

पत्तियाँ भटकती और लुढ़कती हैं 
जंगल दर जंगल 
जादुई जमीन की तलाश में, 
संभाले हुए उदासी का फूल. 
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल) 

Wednesday, June 29, 2011

अडोनिस : दो कविताएँ


अडोनिस की दो कविताएँ... 













शोकगीत (अपने पिता के लिए) 

1. 
मेरे पिता एक भविष्य हैं  
जो बहता चला आता है हमारी तरफ,
एक सूरज,
और बदली छा जाती है हमारे घर के ऊपर. 

मैं प्रेम करता हूँ उनसे, एक दफनाए हुए गूढ़ राज से,
मिट्टी में ढँके एक माथे से. 

मैं प्रेम करता हूँ उनसे, उनकी सड़ती हड्डियों और मिट्टी से.

2. 
खामोशी छंट गई हमारे घर के ऊपर से, 
और उठने लगी एक शांत विलाप की आवाज़ --
और जब मेरे पिता को ले लिया मौत ने अपने आगोश में 
सूख गया एक खेत, एक गौरैया उड़ गई. 
                    :: :: :: 

अँधेरे में रहने वाले एक आदमी का गीत 

ऊपर चढ़ना? मगर कैसे?
मशाल नहीं हैं ये पहाड़ियां.
वहां ऊपर बर्फ में 
कोई सीढ़ी नहीं है मेरे इंतज़ार में. 

इसलिए यहाँ से 
तुम्हारी खातिर -- 
दर्द भरा ये सन्देश...

हर बार जब मैं खड़ा होता हूँ,
न बोलते हैं 
मेरे खून में दौड़ रहे पहाड़,
और अन्धेरा 
जकड़ लेता है मुझे अपनी तंग उदासी में.   
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

क्या तुम्हें नहीं दिखती नंगी तलवार


अडोनिस की दो और कविताएँ... 


















हुसैन मस्जिद के लिए एक आईना 

क्या तुम्हें नहीं दिखते कुबड़े पेड़ 
नशे में चूर, धीरे-धीरे 
जाते हुए 
इबादत के लिए?
क्या तुम्हें नहीं दिखती नंगी तलवार, 
और एक निशस्त्र जल्लाद 
रोता 
और चक्कर लगाता हुआ हुसैन मस्जिद का?  
                    :: :: :: 

आशिक की देंह के लिए एक आईना 

हर रोज़ आशिक की देंह 
घुल जाती है हवा में, खुशबू बन जाती है 
चक्कर खाते फैलती हुई, 
और याद दिलाती हुई सभी इत्रों की. 
वह आता है अपने बिस्तर के पास 
ढँक देता है 
अपने ख़्वाबों को, ख़त्म और इकट्ठा होता है 
लोबान की तरह. 
उसकी शुरूआती कविताएँ जैसे तकलीफ में कोई बच्चा 
पुलों की भूलभुलैया में भटकता हुआ.
उसे नहीं पता कि कैसे रहा जाए उनके समुन्दर में,
और नहीं पता कि कैसे पार किया जाए उसे. 
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

Tuesday, June 28, 2011

अडोनिस : खालिदा के लिए एक आईना


अडोनिस की कविता, 'खालिदा के लिए एक आईना'... 













खालिदा के लिए एक आईना : अडोनिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

लहर 

खालिदा 
उदासी की एक डाली 
जिसके चारो तरफ फूटती हैं कोंपलें, 

खालिदा 
          एक सफ़र जो डुबो देता है दिन को 
          आँखों के पानी में,
          एक लहर जिसने मुझे सिखाया कि  
          सितारों की रोशनी 
          बादलों के चेहरे 
          और मिट्टी की सिसकी 
          एक ही फूल हैं. 
                    ~ ~

पानी के नीचे 

हम सोए 
रात के अँधेरे से बुनी चादरों में - रात जो थी भूलने की 
और हमारे भीतर का खून गा रहा था 
झाँझ मजीरे की धुन पर 
पानी के नीचे चमक रहे सूरज के साथ. 
तब रात उम्मीद से हो गई. 
                    ~ ~ 

गुम 

एक बार मैं गुम हो गया था तुम्हारे हाथों में, और मेरे होंठ 
एक किला थे, अज़ब जीत के लिए बेकरार 
तैयार प्रेम में गिरफ्तार होने के लिए. 
तुम आगे बढ़ीं 
तुम्हारी कमर कोई मलिका थी 
और तुम्हारे हाथ सेनापति 
कोई पनाह थीं तुम्हारी आँखें और दोस्त. 
हम जुड़ गए एक-दूसरे से, गुम हो गए, और दाखिल हुए 
आग के एक जंगल में -- मैनें खाका खींचा पहले कदम का 
और तुमने बना दिया रास्ता... 
                    ~ ~

थकान 

पुरानी थकान फूल रही है घर के चारो ओर 
गमले और एक बालकनी है अब उसके पास 
सोने के लिए. वह गायब हो जाती है 
और हमें फ़िक्र होती है उसके सफ़र में उसकी खैरियत की, 
हम दौड़ते हैं मकान का चक्कर लगाते हुए 
पूछते हुए घास के हर तिनके से,
हम दुआ करते हैं, उसकी एक झलक पाकर चिल्लाते हैं :
"क्या, किधर, कैसे?
बह चुकी हैं सारी हवाएं  
सारी डालियाँ झूम चुकीं उनके साथ,
पर तुम नहीं आई."   
                    ~ ~

मौत 

उन लमहों के बाद 
लौट आता है वही वक़्त 
और वही कदम और वही रास्ते दुहराए जाते हैं.
उसके बाद जर्जर हो जाते हैं मकान  
पलंग बुझा देता है अपने ज़माने की आग और मर जाता है 
और मर जाती है तकिया भी. 
                    :: :: :: 

Monday, June 27, 2011

अडोनिस : एक कोट है हमारे घर में


अडोनिस की कविता... 














एक कोट : अडोनिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

एक कोट है हमारे घर में 
जिसे सिला है मेरे पिता की ज़िंदगी ने 
मेहनत के धागों से. 
यह मुझे बताता है -- तुम रहे उनकी दरी पर 
जैसे पेड़ से काट दी गई कोई डाली 
और उनके लिए तुम थे   
भविष्य के भी भविष्य. 

एक कोट है हमारे घर में 
लापरवाही से कहीं फेंका हुआ, 
जो जोड़ता है मुझे इस छत से 
इस गारे और पत्थर से.
इस कोट के छेदों में मुझे दिखती हैं 
अपने पिता की गले लगाती बाहें,
उनका दिल, और बहुत गहरे बसी 
कोई चाहत.

यह बचाता है मुझे, ढँक लेता है,
दुआओं से भर देता है मेरे रास्तों को,
उनकी बाँसुरी सौंपता है मुझे,
एक जंगल और एक गीत. 
                    :: :: :: 

अफ़ज़ाल अहमद सैयद की दो कविताएँ


अफ़ज़ाल अहमद सैयद की दो कविताएँ... 


मेज़बान 

तुम एक अच्छी मेज़बान हो 
मेरे लिए वह सेब ले आती हो 
जिस पर तुम्हारे दांतों के निशान हैं 
और खून आलूद अनार 
और एक नज़्म 
और एक छूरी 
जो चीज़ों को टेढ़ा काटती है 
          :: :: ::

नज़्म 

जहां तुम यह नज़्म ख़त्म करोगी 
वहां एक दरख़्त उग आएगा 

शिकार की एक मुहिम में 
तुम उसके पीछे एक दरिन्दे को हलाक़ करोगी 

कश्तीरानी के दिन 
उससे अपनी कश्ती बाँध सकोगी 

एक ईनामयाफ़्ता तस्वीर में 
तुम उसके सामने खड़ी नज़र आओगी 
फिर तुम उसे 
बहुत से दरख्तों में गुम कर दोगी 
और उसका नाम भूल जाओगी 
और यह नज़्म  
          :: :: :: 

(लिप्यंतरण : मनोज पटेल)
AFZAL AHMED SYED - افضال احمد سيد

Sunday, June 26, 2011

एक ख़ुदा जो ज़िंदा है बिना इबादत के


अडोनिस की कविताएँ...
















भूखा 

वह भूख की तस्वीर बनाता है अपनी किताब में --
सितारों और सड़कों की -- 
और हवा की रुमाल से 
ढँक देता है पन्ने को 
          और हम देखते हैं 
          पलकें झपकाता प्यारा सूरज 
          और सांझ. 
                    :: :: :: 

दो कवि 

दो कवि खड़े हैं नाद और अनुनाद के बीच.
पहला बोलता है 
टूटे हुए चंद्रमा की तरह 
और दूसरा खामोश है जैसे कोई बच्चा 
जो हर रात सोता हो 
किसी ज्वालामुखी की गोद में.  
                    :: :: :: 

तुम कौन हो 

एक तितली पर जमी हैं मेरी निगाहें 
दहशत कोड़े फटकारती है मेरे गीतों पर 

-- तुम कौन हो?
-- काम पर निकला एक भाला 
          एक ख़ुदा जो ज़िंदा है बिना इबादत के. 
                :: :: :: 

एक पत्थर 

मैं इबादत करता हूँ इस शान्त पत्थर की  
जिसके बदन पर मुझे दिखता है 
अपना चेहरा 
और अपनी गुमशुदा कविता.
               :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल)

Saturday, June 25, 2011

अडोनिस : मौत का जश्न मनाना


अडोनिस की कविता... 











मौत का जश्न मनाना : अडोनिस 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

मौत पीछे से आती है 
तब भी जब वह हमारे आगे आ खड़ी होती है. 
सिर्फ ज़िंदगी करती है आमना-सामना. 

आँख एक सड़क है 
और सड़क एक चौराहा.

एक बच्चा खेलता है ज़िंदगी के साथ,
एक बुजुर्ग इसका सहारा लिए रहता है. 

बहुत ज्यादा बोलने से जंग लग जाती है जुबान में, 
और आँख सूख जाती है ख़्वाबों की कमी से. 

झुर्रियां -- 
चेहरे पर बनी नालियां,
दिल में बने गड्ढे.

एक देंह -- आधी दहलीज,
आधा झुकना. 

सिर्फ एक पंख वाली 
कोई तितली है उसका सर.

तुम्हें पढ़ता है आसमान 
जब मौत तुम्हें लिख देती है. 

आसमान की दो छातियाँ हैं;
जिनसे स्तनपान करते हैं सभी लोग 
हर पल, हर जगह. 

इंसान एक किताब है 
जिसे ज़िंदगी पढ़ती रहती है लगातार,
और अचानक से पढ़ती है मौत 
सिर्फ एक बार. 

इस शहर के बारे में कुछ?
इसमें सुबह दिखाई पड़ती है छड़ी की तरह 
उस अँधेरे में जिसे वक़्त कहते हैं. 

बहार आई मकान के बगीचे में,
अपना सूटकेस रखा 
और अपनी बाहों से गिर रही बारिश के नीचे 
चीजों को बांटना शुरू कर दिया पेड़ों को. 
कवि को हमेशा गलत क्यों समझा जाता है?
बहार उसे अपनी पत्तियाँ देती है 
और वह उन्हें सौंप देता है रोशनाई को. 

हमारा वजूद एक ढलान है 
और हम ज़िंदा रहते हैं उसपर चढ़ने के लिए.

रेत, मैं तुम्हें मुबारकबाद देता हूँ. 
सिर्फ तुम ही ढाल सकती हो 
पानी और मरीचिका को 
एक ही प्याले में. 
                    :: :: ::  

Friday, June 24, 2011

अडोनिस की कविताएँ


1930 में सीरिया में जन्मे अली अहमद सईद, अडोनिस के उपनाम से लिखते हैं. अपने राजनीतिक विचारों के कारण जेल में डाले जाने के बाद 1956 में वे बेरुत चले गए. चार साल बाद लेबनानी नागरिकता. 1958 में 'मवाकिफ' साहित्यिक पत्रिका की शुरूआत. अडोनिस अरबी साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण कवि एवं आलोचक माने जाते हैं.  












आग का पेड़ 

नदी के किनारे खड़ा पेड़ 
पत्तियों के आंसू गिरा रहा है. 
आँसू दर आंसू 
ढँक दिया है उसने किनारे को. 
वह सुना रहा है नदी को 
आग की अपनी भविष्यवाणी. 
मैं आखिरी पत्ती हूँ 
जिसे कोई नहीं देख पाता 
          मेरे लोग 
ख़त्म हो चुके हैं 
जैसे ख़त्म हो जाती है आग 
बिना कोई निशान छोड़े. 
               :: :: ::   

गीतों का मुखौटा      

अपने खुद के इतिहास के नाम पर 
दलदल में फंसे एक देश में, 
भूख से परेशान हो 
वह अपना ही माथा खा जाता है. 
उसकी मौत हो जाती है.
मौसम कभी नहीं जान पाते कि कैसे. 
उसकी मौत गीतों के अनंत मुखौटे के पीछे होती है. 

इकलौता वफादार बीज,  
वह अकेला गहरे दफ़न रहता है ज़िंदगी में. 
                :: :: :: 
प्यार 

सड़क और मकान मुझे प्यार करते हैं,
जीवित और मृतक,
और घर पर रखा लाल मिट्टी का जग 
जिस पर फ़िदा है पानी.

पड़ोसी मुझे प्यार करता है,
खेत, खलिहान, और आग.

मेहनतकश हाथ, जो बेहतर बनाते हैं दुनिया को 
मुझे प्यार करते हैं. 

और बदले में कुछ पाए बिना भी चले जाते हैं खुशी-खुशी.

और इधर-उधर बिखरे पड़े हैं 
मेरे भाई की मुरझाई छाती के टुकड़े,
गेहूं की बालियों और मौसम में छिपे,
खून को भी शर्मसार कर देने वाले लाल इन्द्रगोप पत्थर की तरह. 

वह ईश्वर था प्यार का मेरे समय में. 
क्या करेगा प्यार जब मैं भी नहीं रहूँगा. 
               :: :: ::  


(अनुवाद : मनोज पटेल)

Thursday, June 23, 2011

येहूदा आमिखाई की कविताएँ


येहूदा आमिखाई की किताब 'Time'  से दो और कविताएँ... 











वक़्त : येहूदा आमिखाई 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

यह मेरी माँ का घर है. 
बड़ा हो गया है वह पौधा 
जिसने इसपर चढ़ना शुरू किया था मेरे बचपन में 
और चिपका हुआ है इसकी दीवार से.
मगर मैं उजाड़ दिया गया था बहुत पहले. 

माँ, तुमने जन्म दिया था मुझे तकलीफ सहकर,
तकलीफ में ही रहता है तुम्हारा बेटा.
उसकी उदासी कंघी करके संवरी हुई है,
और अच्छे कपड़े पहनकर तैयार है उसकी खुशी.
अपने ख़्वाब की मदद से वह अपनी रोटी कमाता है 
और अपनी रोटी की मदद से अपने ख़्वाब. 
औसत सालाना बारिश 
उसे छूती भी नहीं 
और रोनी परछाईं सी गुजर जाती हैं 
तापमान की डिग्रियां उसके पास से. 

ओह मेरी माँ, जिसने पेश किया 
मेरे सामने पहला प्याला 
इस दुनिया में : कहते हुए, 'तुम्हारी तंदरुस्ती के लिए'.
मेरे बेटे!
मैं कोई भी बात नहीं भूली हूँ, मगर मेरी ज़िंदगी 
शांत और गहरी हो गई है 
जैसे गले में गहरे कोई दूसरा घूँट,
पहले से अलग, जो पिया जाता है 
चूसते, चटखारा लेते, खुश होंठों से. 
सीढ़ियों पर तुम्हारे कदम 
हमेशा रहते हैं मेरे भीतर, 
न तो पास आते हैं कभी और न ही कभी दूर जाते,
धड़कनों की तरह.     
                    :: :: :: 

यह क्या है? औजार रखने की 
एक पुरानी जगह.
नहीं, यह अतीत हो चुका एक महान प्यार है. 

डर और ख़ुशी साथ-साथ मौजूद थे 
इस अँधेरे में 
और उम्मीद. 
शायद पहले भी एक बार आ चुका हूँ मैं यहाँ.
मैनें नजदीक जाकर पता नहीं किया.

यह आवाजें पुकार रही हैं किसी ख्वाब से.
नहीं, यह एक महान प्यार है.
नहीं, यह औजार रखने की जगह है. 
                    :: :: :: 

Wednesday, June 22, 2011

सर्गोन बोउलुस : चिट्ठी मिली


सर्गोन बोउलुस की एक और कविता...


चिट्ठी मिली : सर्गोन बोउलुस 
(अनुवाद : मनोज पटेल)

तुमने बताया 
कि तुम्हारे लिखते समय 
बम बरस रहे हैं,
छतों के इतिहास 
और मकानों के नामोनिशान मिटाते हुए. 

तुमने कहा :
मैं तुम्हें यह चिट्ठी लिख रहा हूँ 
जबकि उन्हें ख़ुदा ने इजाज़त दे रखी है 
मेरी तक़दीर लिखने की ;
इसी बात पर मुझे शंका होती है उसके ख़ुदा होने में. 

तुमने लिखा :
मेरे शब्द, गोलियों की बरसात से डराए जा रहे प्राणी हैं. 
इनके बिना मैं ज़िंदा नहीं रह पाऊंगा. 

"उनके" चले जाने के बाद, मैं उन्हें फिर से पा लूंगा 
उनकी सारी पवित्रता के साथ जैसे मेरी सफ़ेद पलंग 
वहशियों की अंधेरी रात में. 

हर रात, मैं चौकस रहता हूँ अपनी कविता में सुबह तलक. 

फिर तुमने कहा :
मुझे एक पहाड़ की जरूरत है, एक शरण स्थल की. मुझे दूसरे इंसानों की जरूरत है.

और तुमने चिट्ठी भेज दिया. 
                    :: :: :: 

Tuesday, June 21, 2011

नाजिम हिकमत की दो कविताएँ


नाजिम हिकमत की दो कविताएँ... 


दुनिया का सबसे अजीब प्राणी 
 
तुम किसी बिच्छू की तरह हो, मेरे भाई,
बिच्छू की तरह 
रहते हो कायरता से भरे अँधेरे में.
तुम किसी गौरैया की तरह हो, मेरे भाई,
गौरैया की तरह 
हमेशा रहते हो हड़बड़ी में. 
तुम किसी सीपी की तरह हो, मेरे भाई,
सीपी की तरह बंद और संतुष्ट. 
और तुम डरावने हो, मेरे भाई,  
किसी सुप्त ज्वालामुखी की तरह डरावने.

एक नहीं,
पांच नहीं --
अफ़सोस की बात है कि लाखों की संख्या में हो तुम.
तुम किसी भेंड़ की तरह हो, मेरे भाई :
जब भेंड़ की खाल ओढ़े चरवाहा अपना डंडा उठाता है,
तुम झट से शामिल हो जाते हो झुण्ड में 
और लगभग गर्व से भरे दौड़ पड़ते हो बूचड़खाने की तरफ.
मेरा मतलब है कि तुम इस दुनिया के सबसे अजीब प्राणी हो --
मछली से भी ज्यादा अजीब 
जो पानी में होते हुए भी समुद्र को नहीं देख पाती.
और इस दुनिया में शोषण 
तुम्हारी ही वजह से है.
और अगर हम भूखे, थके, लहूलुहान हैं  
और पीसे जाते हैं जैसे शराब के लिए अंगूर,
यह तुम्हारी गलती है -- 
बहुत मुश्किल है मेरे लिए यह कहना,
मगर मेरे भाई, ज्यादा गलती तुम्हारी ही है. 
                                                                 1947 
                    :: :: :: 

आशावादी 

जब वह छोटा था तो उसने कभी नहीं नोचे मक्खियों के पर
न ही कभी टीन के डिब्बे बांधे बिल्लियों की पूंछ से,
माचिस की डिब्बियों में कभी नहीं बंद किया कीड़ों को,
न ही नष्ट किया कभी चींटियों की बांबी को. 
वह बड़ा हुआ तो 
ये सारी चीजें उसके साथ की गयीं. 
जब वह मृत्युशय्या पर था 
तो उसने मुझसे एक कविता सुनाने के लिए कहा,
सूरज और समुद्र के बारे में,  
परमाणु रिएक्टरों और सेटलाइटों के बारे में,
मानव जाति की महानतम उपलब्धियों के बारे में. 
                                                                 दिसंबर 1958 
                                                                                              बाकू 
                    :: :: :: 

(अनुवाद : मनोज पटेल) 
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