लैंग्स्टन ह्यूज की एक कविता...
नीग्रो : लैंग्स्टन ह्यूज
(अनुवाद : मनोज पटेल)
मैं नीग्रो हूँ :
रात जितना काला,
काला, अपने अफ्रीका की गहराइयों जैसा.
गुलाम रहा हूँ मैं :
सीजर ने मुझसे अपनी चौखट साफ़ करवाई,
वाशिंगटन के जूते चमकाए मैनें.
मजदूर रहा हूँ मैं :
मेरे ही हाथों ने खड़े किए पिरामिड,
गारा-मिट्टी किया मैनें वूलवर्थ बिल्डिंग के लिए.
गवैया रहा हूँ मैं :
अपने दुख भरे गीतों को मैं ले आया
अफ्रीका से जार्जिया तक.
रैगटाइम बनाया मैनें ही.
पीड़ित रहा हूँ मैं :
बेल्जियनों ने मेरे हाथ काटे कांगो में,
मिसीसिपी में वे बेगुनाह मारते हैं मुझे अभी भी.
नीग्रो हूँ मैं :
रात जितना काला,
काला, अपने अफ्रीका की गहराइयों जैसा.
:: :: ::
Manoj Patel Blog, padhte-padhte.blogspot.com
Manoj Patel Blog, padhte-padhte.blogspot.com
awesome poem, jesa k aam kar ke hota hain...
ReplyDeleteउफ्फ!
ReplyDeleteअश्वेतों की पूरी व्यथा-कथा, और वह भी इतने कम शब्दों में ! तमाम ज़ुल्मो-सितम के बावजूद अश्वेत खड़े हैं अपनी पूरी ताक़त और रचनात्मकता के साथ. अश्वेत होने पर गर्व के साथ.
ReplyDeleteशानदार |
ReplyDeleteमनोज जी कविता है या अपनों का पत्र पढ़ कर आँख भर आया
ReplyDeleteबहुत बहुत बढ़िया....बहुत बहुत शुक्रिया इस कविता तक हमें पहुचानें के लिए...
ReplyDelete