इस ब्लॉग पर आप इन दिनों अर्जेंटीना के कवि राबर्तो हुआरोज़ की कविताएँ पढ़ रहे हैं. आज प्रस्तुत हैं अर्जेंटीना के एक और कवि एंतोनियो पोर्चिया (१३ नवम्बर १८८५ -- ९ नवम्बर १९६८) की सूक्तियां. हालांकि उनका जन्म इटली में हुआ था किन्तु १९०० में अपने पिता की मृत्यु के बाद १९०६ में वे अर्जेंटीना चले गए थे. वहां उन्होंने बहुत सालों तक टोकरी बुनने वाले के रूप में काम किया और उसके बाद ब्यूनस आयर्स बंदरगाह पर एक क्लर्क के रूप में. कुछ पैसे जुट जाने के बाद उन्होंने अपने भाई निकोलस के साथ मिलकर एक छापाखाना खोल लिया जहां वे अगले १८ सालों तक काम करते रहे. भाईयों और बहनों के आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाने के बाद उन्होंने प्रेस का काम छोड़ दिया. इन्हीं दिनों वे कुछ कलाकारों के संपर्क में आए जिन्होनें पोर्चिया को इस बात के लिए राजी किया कि वे अपनी सूक्तियों और वाक्यांशों को खुद ही प्रकाशित करें. 'आवाजें' (Voices) नाम से यह किताब छप तो गई मगर बहुत दिनों तक उन किताबों के बण्डल यूं ही पड़े रहे और आखिरकार सारी किताबें सार्वजनिक पुस्तकालयों की एक सोसायटी को दान कर दी गईं. इसी किताब की कोई प्रति उन दिनों अर्जेंटीना आए हुए फ्रेंच कवि एवं आलोचक रोजर कैलोईस के हाथों में पड़ी और उन्होंने शर्मीले पोर्चिया को बुलाकर कहा कि "इन पंक्तियों से मैं अपने समूचे लेखन की अदला-बदली कर सकता हूँ." फ्रांस लौटने के बाद उन्होंने फ्रेंच भाषा में Voices का अनुवाद भी किया. उसके बाद तो वे इतने मशहूर हुए कि तमाम साहित्यकारों के लिए वे 'कल्ट आथर' बन गए. उनकी बाद की सारी किताबें भी Voces (Voices) नाम से ही प्रकाशित हुईं.
प्रस्तुत हैं एंटोनियो पोर्चिया की कुछ सूक्तियां...
आवाज़ें : एंतोनियो पोर्चिया
(अनुवाद : मनोज पटेल)
समुन्दर था और मैं था. समुन्दर अकेला था और मैं भी अकेला था.
हम दोनों में से एक गुम था.
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टूटे बिना किसी चीज का अंत नहीं होता,
क्योंकि सारी चीजें अनंत हैं.
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लगभग बिना किसी शब्द के तुम इस दुनिया में आए थे,
जो शब्दों के बिना कुछ भी नहीं समझती.
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मजबूत वह नहीं है जिसने मुझे एक डोर से थाम रखा है,
मजबूत वह डोर है.
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यदि तुम अपनी नजरें न उठाओ
तो तुम्हें लगेगा कि तुम सबसे ऊंची जगह पर हो.
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तकलीफ ऊपर है, नीचे नहीं. और सबको लगता है कि तकलीफ नीचे है.
और सब लोग ऊपर उठना चाहते हैं.
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मेरी खामोशी में सिर्फ मेरी आवाज़ की कमी है.
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पर्दा मत हटाओ. हो सकता है कि वहां कुछ नहीं हो.
और कुछ नहीं पर फिर से पर्दा नहीं डाला जा सकता.
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Manoj Patel
समंदर की तरह गहरी , मज़बूत डोर की तरह बारीक , खामोशी की तरह जीवित और पारदर्शी परदे की तरह पहरेदार कविता. आभार
ReplyDeleteसफलता कहां छुपी है कोई नहीं जानता बढ़िया प्रस्तुति.. आभार।
ReplyDeleteलगभग बिना किसी शब्द के तुम इस दुनिया में आये थे
ReplyDeleteजो बिना शब्दों के कुछ भी नहीं समझती !!
बहुत सुंदर ! थैंक्स मनोज जी !!
बहुत सुंदर कविता.बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteभावपूर्ण और विराट को समेटे हुए सार्थक रचना है.
ReplyDelete"मेरी ख़ामोशी में सिर्फ मेरी आवाज़ की कमी है ..."
ReplyDeleteछोटी छोटी बातें...
लेकिन अर्थपूर्ण.......
so well put!
ReplyDeleteThanks for this rare compilation!
baemishal
ReplyDeleteसार्थक बातें.पर्दा ना उठाओ.तकलीफ नीचे है. शब्दों के शोर से भरी दुनिया.
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