Wednesday, February 29, 2012

शिहाब घानम : छूमंतर


दुबई में रहने वाले शिहाब घानम इंजीनियर, मैनेजर, अर्थशास्त्री, कवि और अनुवादक हैं. उन्होंने इंग्लैण्ड के साथ-साथ रुड़की (भारत) से भी शिक्षा पाई है. अरबी भाषा में आठ कविता-संग्रह और अंग्रेजी में एक कविता-संग्रह प्रकाशित है. कुल तीस प्रकाशित पुस्तकों में कई पुस्तकें उनके अनुवाद की भी हैं.   













छूमंतर : शिहाब घानम 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

                   पोती हानूफ़ के लिए                
सिक्के को अपनी बाईं हथेली पर रखकर 
मैनें उसपर एक फूंक मारी 
और दूसरी हथेली से उसे ढँककर 
उससे कहा: "कहो छूमंतर!" 
वह बोली: "चू मंतल" 
मैनें अपना हाथ हटाया 
सिक्का कहाँ गया?... कहाँ गया?... 
पलक झपकते ही वह गायब हो गया... 
वह खिलखिलाई... ताज्जुब झलक रहा था उसकी आँखों में 
वह --ऊपर वाला उसकी हिफाजत करे-- अभी दो साल की भी नहीं हुई थी. 
"छूमंतर" 
और गायब हो जाता था हमारा फूँका हुआ सिक्का 
वह गई और जाकर 
मखमली कपड़े वाली अपनी बड़ी सी गुड़िया ले आई. 
गुड़िया को मेरे हाथों में पकड़ाकर वह बोली: "चू मंतल" 
मैं भरे हुए गले से बोला:
"इतनी खूबसूरत गुड़िया 
गायब नहीं होती मेरी बिट्टू!" 
                    :: :: :: 


4 comments:

  1. दिल को छूती रचना.

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  2. खूबसूरत कविता .....आभार ...!!

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  3. भई वाह, मनोज, वाह! आज तो क्या ग़ज़ब की रचना लेकर आए हो! नन्हे-मुन्नों को दिखाए जाने वाले "जादू" की सीमाएं किस तरह उजागर की हैं कि जादू दिखा पाने का भरम पाले व्यक्ति का गला भर आता है, बिना कहे अपनी हार स्वीकार करते वक़्त. बधाई, "चू मंतल".

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