तुर्की कवि केमलात्तिन तुग्कू की एक कविता...
अहमत साहब के जूते : केमलात्तिन तुग्कू
(अनुवाद : मनोज पटेल)
वे बहुत बचाते थे अपने जूतों को और जल्दी पहनते नहीं थे उन्हें
हर शाम उन्हें साफ़ किया करते अगले दिन के लिए
वे ठकठकाया करते उनके तल्लों को और सुनते थे उसकी आवाज़
कहते थे कि प्योर फ्रेंच लेदर है साहब
एक ख़ास ब्रश और कपड़ा था उनके जूतों के लिए
हमेशा साफ़ रखते थे वे उन्हें अन्दर और बाहर से
हर शाम घर लौटते ही वे पहन लेते थे चप्पलें
उनके जूते ही थे ज़िंदगी में उनकी इकलौती चिंता
बिस्मिल्ला बोलकर वे निकल पड़ते थे डामर की सडकों पर
उन्हें पता था कि यह जूता मुल्क सड़ जाएगा बर्फीले पानियों में
जूतों की जगह सुरक्षित रहती थी दरवाजे के बगल
उन्हें अगल-बगल रखा करते थे बेचारे जनाब अहमत
वे कहा करते, "ये जूते अभी बहुत सालों तक और चलेंगे"
मगर बदकिस्मती से उतनी लम्बी नहीं चल पाई उनकी अपनी ज़िंदगी
उन्होंने फेंके नहीं उनके जूते
न ही बेचा उन्हें किसी को
क्योंकि बड़ी स्मृतियाँ थीं जूतों की.
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Manoj Patel, padhte padhte blogspot. com
Hmm.. Kaash hum sab sanvaarte apnee zindagee.. - Reena Satin
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