नोबेल पुरस्कार विजेता ओरहान पामुक की कथेतर गद्य पुस्तक 'अदर कलर्स' से एक और अंश...
खुश होना : ओरहान पामुक
(अनुवाद : मनोज पटेल)
क्या खुश होना खराब बात है? मैं अक्सर इस बारे में जानने को उत्सुक रहा हूँ. अब तो मैं हमेशा इसके बारे में विचार किया करता हूँ. हालांकि कई बार मैं कह चुका हूँ कि खुश होने में समर्थ लोग बुरे और मूर्ख होते हैं, समय-समय पर मुझे ऐसा भी लगता है कि नहीं, खुश होना बुरा नहीं है और इसके लिए मगजमारी करनी पड़ती है.
जब मैं अपनी चार साल की बेटी रुया के साथ समुन्दर के किनारे जाता हूँ तो मैं दुनिया का सबसे खुश इंसान हो जाता हूँ. दुनिया का सबसे खुश इंसान सबसे अधिक क्या चाहता है? निस्संदेह वह दुनिया का सबसे खुश इंसान बना रहना चाहता है. इसीलिए उसे पता होता है कि हर बार वही-वही चीजें करना कितना जरूरी है. और हम ठीक यही करते हैं, हमेशा एक जैसी चीजें.
१. सबसे पहले तो मैं उसे बताता हूँ : आज हम इतने-इतने बजे समुन्दर किनारे चल रहे हैं. फिर रुया की कोशिश उस समय को और नजदीक खिसकाने की होती है. मगर उसकी समय की समझ थोड़ा गड़बड़ है. मसलन वह अचानक मेरे पास आएगी और कहेगी, "अभी समय नहीं हुआ?"
"नहीं."
"पांच मिनट में समय हो जाएगा क्या?"
"नहीं, ढाई घंटे बाद समय होगा."
हो सकता है पांच मिनट बाद ही वह वापस आकर बड़ी मासूमियत से पूछे, "डैडी, अब चलें समुन्दर किनारे?" या कुछ देर बाद मुझे दांव देने वाली आवाज़ में रुया पूछेगी, "तो अब चल रहे हैं ना?"
२. ऐसा लगता है कि निकलने का समय कभी नहीं आएगा, मगर फिर समय हो जाता है. रुया अपनी तैराकी की पोशाक पहनकर चार पहियों वाली बच्चों की गाड़ी में बैठी जाती है. उसमें कुछ तौलिए हैं, कुछ स्विमसूट और एक अजीब सा तिनके का बैग जिसे मैं जाने-पहचाने रास्ते पर गाड़ी धकेलने के पहले उसकी गोद में सरका देता हूँ.
३. जब हम पथरीली गलियों के रास्ते से गुजरते हैं तो रुया आआह कहने के लिए अपना मुंह खोलती है. जब पत्थर गाड़ी को खड़खड़ाते हैं तो वह आआ-आआह में बदल जाती है. पत्थर रुया से गाना गवा रहे हैं! उसे सुनकर हम दोनों ही हँसते हैं.
४. समुन्दर किनारे तक का साधारण और छोटा रास्ता जल्दी ही समाप्त हो जाता है. किनारे की ओर नीचे उतर रही सीढ़ियों के पास गाड़ी को खड़ी करते समय रुया हमेशा कहती है, "चोर यहाँ कभी नहीं आते."
५. हम जल्दी-जल्दी अपना सामान पत्थरों पर फैला देते हैं और कपड़े उतारकर घुटनों भर समुन्दर में चले जाते हैं. फिर मैं कहता हूँ, "अब ठीक है, मगर ज्यादा दूर हरगिज मत जाना. मैं थोड़ा सा तैरकर आता हूँ, फिर हम खेलेंगे. ठीक है?"
"ठीक है."
६. अपने ख़याल पीछे झटकते हुए मैं तैरने निकल जाता हूँ. रुकने के बाद रुया को देखने के लिए मैं पीछे किनारे की तरफ देखता हूँ. अपनी तैराकी की पोशाक में रुया अब एक लाल धब्बे जैसी दिखती है और मैं सोचता हूँ कि मैं उसे कितना प्यार करता हूँ. यहाँ समुन्दर में मेरा हंसने का मन करता है. किनारे के पास उसने छपछपाहट मचा रखी है.
७. मैं वापस जाता हूँ. मेरे किनारे पहुँचने के बाद हम खेलने लग जाते हैं : (a) पानी में पैर चलाना; (b) छपछपाना; (c) डैडी का मुंह से पानी की फुहार मारना; (d) तैरने का नाटक करना; (e) समुन्दर में कंकड़ फेंकना; (f) बोलने वाली गुफा से बात करना; (g) चलो-चलो ज्यादा बचने की कोशिश न करो, अब तैरो, और अपने पसंदीदा सभी खेल और रस्में, और जब हम उन सबको खेल चुकते हैं तो हम उन्हें फिर से खेलते हैं.
८. "तुम्हारे होंठ बैगनी पड़ रहे हैं, तुम्हें सर्दी लग रही है." "नहीं, मुझे नहीं लग रही." "तुम्हें सर्दी लग रही है, हम बाहर निकल रहे हैं." कुछ देर ऐसा ही चलता है और बहस ख़त्म हो जाने के बाद हम पानी से बाहर निकल आते हैं. और जब हम रुया का शरीर पोंछकर उसका स्विमसूट बदल रहे होते हैं --
९. अचानक ही वह मेरी बाहों से छिटककर खिलखिलाते हुए नंगी ही दौड़ लगाने लगती है. जब मैं उसके पीछे पत्थरों से होते हुए नंगे पैर भागने की कोशिश करता हूँ तो मैं लंगड़ाने लगता हूँ. नंगी-धड़ंगी रुया के लिए यह और भी ज्यादा हँसी का सबब है. मैं बोलता हूँ, "देखो, अगर मैं जूते पहन लूं तो तुम्हें पकड़ लूंगा." मैं ठीक यही करता हूँ और वह चीखती रहती है.
१०. लौटते हुए मैं रुया की गाड़ी धकेल रहा होता हूँ और हम दोनों ही थक कर चूर व बहुत खुश होते हैं. हम ज़िंदगी के बारे में सोचते हैं और अपने पीछे छूट गए समुन्दर के बारे में, और एक भी शब्द नहीं बोलते.
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Orhan Pamuk in Hindi, Manoj Patel Blog, padhte-padhte.blogspot.com
कुछ अच्छा पढ़ने की इच्छा लिए आपके ब्लॉग पर आते हैं...
ReplyDeleteऔर कभी निराशा नहीं हुई..
शुक्रिया.
achchhi lagi ye post ... sahaj jivan ki jhanki.
ReplyDeleteyahi to hai khush hona.
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता....बीते दिनों की याद ताजा करती हुई ...बिटिया की तस्वीर लगाने के लिए शुक्रिया....!!
ReplyDeleteखुश रहना कितना आसान है! शायद इसीलिए लोगों को मुश्किल लगता है. खुश रहना न केवल बुरी बात नहीं है, यह बेहद ज़रूरी बात भी है. एक छोटी-सी बच्ची कितने कम में खुश हो लेती है, और बच्ची के साथ खुशी हासिल करके पिता और वह दोनों ही निश्शब्द्ता की अवस्था में पहुंच जाते हैं, क्योंकि खुशी ठीक से बयान किए जाने की ज़द के बाहर की चीज़ है, इसे सिर्फ़ अनुभव किया जा सकता है. वाह मनोज, कितने सहज अनुवाद के ज़रिए खुशी बख्श दी. आभार.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत कविता बचपन के दिनों को ताजा कर गयी
ReplyDeleteइस पोस्ट ने जैसे खुश रहेना याद दिला दिया....मनोज भाई...आप ग्रेट हो पामुक साहब से मिलवाने के लए बहुत शुक्रिया...
ReplyDeletesachmuch maza aa gaya!
ReplyDeletesachmuch maza aa gaya!
ReplyDeleteVAKAI MAI BHAVBIHVAL HO GAYA,BAHUT ACHCHA LAGA AUR MAI KAHI KHO GAYA,VERY VERY THANKS
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता ...खुश रहने के लिए कोई बड़ा आयोजन नहीं करना होता ,बस छोटी-छोटी बातों में ही समाई रहती है ख़ुशी ...बेहद जरूरी ख़ुशी ! मन पर बोझ लेकर जीने वालों के लिए एक जरूरी कविता ! आभार मनोज जी !
ReplyDeleteसुंदर और निजी गद्य...
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