आज पढ़ते हैं मनोज कुमार पांडेय की कहानी, 'बूढ़ा जो शायद कभी था ही नहीं'
बूढ़ा जो शायद कभी था ही नहीं : मनोज कुमार पांडेय
एक बूढ़ा था जो शायद कभी था ही नहीं। उसकी उम्र कितनी थी कोई नहीं जानता था इतिहास की किताबों में उसका जिक्र किस्सों में ही मिलता था। दरअसल वह था भी गजब का किस्सागो। पर वह बूढ़ा होने के कारण स्मृतिदोष का शिकार था। इस वजह से वह कभी भी एक बात को हूबहू वैसे का वैसा नहीं दोहरा पाता था पर वह किस्सागो था इसलिए उसका किस्सा कभी टूटता नहीं था बल्कि नए नए सिरों से और कई बार तो एकदम ही विपरीत दिशाओं में आगे बढ़ता चला जाता था।
वह खुद अपने बारे में भी परस्पर विरोधी बातें किया करता था। और वही बातें जब कभी उसके सामने दोहराओ तब तक वह उन्हें भूल जाता था। बल्कि कई बार तो वह झगड़ने भी लगता था कि यह बात तो उसने कभी कही ही नहीं थी। वह अपनी ही कही बातों को अक्सर बदल देता और कहता कि यह वैसे नहीं ऐसे हुआ था। अगले ही दिन उसके पास उस घटना का एक नया ही संस्करण होता।
ऐसे में यह पता लगा पाना असंभव था कि जिन सच्ची घटनाओं के बारे में वह बात करता है वह पता नहीं कभी घटी भी थीं या नहीं। और अगर वे कभी घटीं नहीं थीं तो उनके बारे में पहले भी कभी किसी ने सोचा था या वे बूढ़े के दिमाग की मौलिक गप्पें थीं! पर जब वह अपने किस्से कहता तो सुननेवालों को लगता कि वह सारा किस्सा कहीं किसी और लोक में इसी समय घट रहा है जिसे सिर्फ वह बूढ़ा देख पा रहा है।
बल्कि लोग इस बात में पूरी तरह से यकीन करने लगे थे। उनका मानना था कि बूढ़े होने की वजह से बूढ़े में कुछ ऐसी आसमानी ताकतें आ गई हैं जिनकी वजह से बूढ़ा तीनों कालों में कहीं भी आवाजाही कर सकता है। इसलिए बूढ़े के शरीर से आती सदियों पुरानी बदबू के बावजूद उसे सुननेवाले लोग बढ़ते ही जाते थे। बड़ी तादाद में लोग उसे घेरे रहते थे पर उसी तादाद में बूढ़े के किस्से भी बढ़ते जा रहे थे। किस्से उसके भीतर की हवा की तरह थे जो कभी खत्म ही नहीं होते थे।
किस्से उसके बदन में जुएं और पिस्सू की तरह विचरते थे। उसकी दांतों की मैल तक में समाए थे। उसकी चमड़ी की सिकुड़न में छुपे मिलते थे। यहां तक कि वह जिन रास्तों से गुजरता उन रास्तों से उसके पांवों के निशानों में से भी किस्से निकलते और दशों दिशाओं में फैल जाते। और उसकी सदियों पुरानी दाढ़ी तो खैर, उसमें किस्सों की कई आकाशगंगाएं एक दूसरे में गुंथी हुई थीं।
किस्सा कहते कहते एक दिन बूढ़े ने पाया कि उसके किस्से उससे भी बड़ा यथार्थ बन चुके हैं। लोगों ने उसके किस्सों के अलग अलग पाठों को लेकर लड़ना शुरू कर दिया है। इस तरह की लड़ाइयों में जब लोग उसके पास फैसले के लिए आते तो उसके पास एक तीसरा ही किस्सा होता। इस वजह से उसके किस्सों को लेकर लड़ते लोग धीरे धीरे उसी के खिलाफ होने लगे।
ऐसे ही एक दिन जब लोग उसकी दाढ़ी के रंग को लेकर लड़ रहे थे और वे आपस में कोई फैसला नहीं कर पाए तो लड़ाई के निपटारे के लिए बूढ़े के पास पहुंच गए।
बूढ़े ने अपनी दाढ़ी में सदियों से शैंपू नहीं किया था। दूसरे वह इतनी घनी थी और इस वजह से उसके भीतर इतना अंधेरा था कि उसके रंग के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल था। बूढ़े की सदियों लंबी उमर ने भी उसकी दाढ़ी पर तरह तरह के रंग और निशान छोड़े थे।
जबकि इस सबसे बेखबर एक धड़ा बूढ़े की दाढ़ी को काली बता रहा था तो दूसरा सफेद। दोनों अपनी अपनी बात को लेकर लड़ मरने को तैयार थे। बूढ़े ने बीच बचाव की बड़ी कोशिश की। दोनों धड़े उसकी दाढ़ी को छूना देखना और एक दूसरे को दिखाना चाह रहे थे। इसी कोशिश में उन सबने बूढ़े की दाढ़ी का एक एक बाल नोच डाला। इसके बाद भी जब वे कुछ नहीं तय कर पाए तो तय हुआ कि बूढ़े से ही पूछा जाय।
बूढ़े की दाढ़ी में अब तक एक भी बाल नहीं बचा था। उसकी दाढ़ी से गीले किस्से टपक रहे थे। बूढ़े की आंखे किस्से के ही किसी लोक में टंगी रह गई थीं। बूढ़ा अपने ही एक किस्से के गूंगे बूढ़े में बदल गया था जोकि पहाड़ की तरह विशाल था। वह चुपचाप बैठा अपने ही किस्सों को मसल रहा था।
जब बूढ़े ने उन दोनों धड़ों की किसी बात का जवाब नहीं दिया तो दोनों धड़ों को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने मिलकर बूढ़े की हत्या कर दी।
बाद में दोनों धड़ों को पछतावा हुआ। आखिरकार बूढ़ा उनके बीच इकलौता किस्सागो था। तब वे फिर वहीं पहुंचे जहां उन्होंने बूढ़े को मिलकर मारा था। वहां बूढ़े का नामोनिशान नहीं था पर किस्से चारों तरफ फैले हुए थे, गूंज रहे थे, कुछ इस असर के साथ कि वहां मौजूद सभी लोग हमेशा के लिए बहरे हो गए। इसके तुरंत बाद दोनों धड़ों ने एकमत से बूढ़े को ईश्वरीय अंश मान लिया और वहीं बैठकर रोने लगे। जब दोनों धड़े रो रोकर थक गए तो उन्हें लगा कि उनके पास बूढ़े का एक चित्र होना चाहिए, जिससे कि वे माफी मांग सकें।
इसी के साथ लोग दोबारा दो धड़ों में बंट गए। एक धड़े ने बूढ़े का काली दाढ़ीवाला चित्र तैयार किया तो दूसरे धड़े ने सफेद दाढ़ीवाला।
पहले धड़े ने बूढ़े की दाढ़ी के काले रंग पर जोर देने के लिए उसे पूरा का पूरा काले से रंग दिया। इसी तरह दूसरे धड़े ने भी बूढ़े को पूरा का पूरा कबूतरों के रंग में रंग दिया। इस तरह से बूढ़े को चाहनेवाले दो धड़ों में बंट गए। काला धड़ा और सफेद धड़ा।
बहुत बाद में एक नए किस्से के साथ तीसरा धड़ा अस्तित्व में आया। तीसरे धड़े ने कहा कि बूढ़े की दाढ़ी से पवित्र रोशनी निकला करती थी। इन लोगों ने बूढ़े को एक गजब की रोशनी के साथ चित्रित करना शुरू कर दिया पर रोशनी का अंधेरा इतना जबरदस्त था कि बूढ़े का चेहरा पहचान पाना किसी भी तरह से मुमकिन नहीं था। बाद में इस धड़े के कुछ जानकारों ने कहा कि कोई चेहरा था ही नहीं सिर्फ एक पवित्र रोशनी भर थी। इस तरह से बूढ़ा निराकार हुआ।
बाद में तीसरे धड़े को पवित्र रोशनी का संबंध किसी अदेखी रोशनी से बनाना जरूरी लगा। तब उन लोगों ने बूढ़े का चित्र दोबारा बनवाया जिसमें ऊपर कोई अदृश्य आसमानी हाथ था जिसमें से रोशनी निकलकर बूढ़े तक आती थी। यह रोशनी लोगों को इतना अंधा कर देती थी कि वे बेचारे बूढ़े का असल चेहरा कभी न देख सकें। तब उन्हें बूढ़े के चेहरे के बारे में तरह तरह के किस्से गढ़ने पड़े। बदले में पहले और दूसरे धड़े ने भी नए नए किस्से गढ़े और बूढ़े को तरह तरह की आसमानी शक्तियों के साथ जोड़ दिया। और इस तरह से तीनों धड़ों के लिए बूढ़ा धरती पर आसमानी शक्तियों का एकमात्र प्रतिनिधि बना।
पर उसे आसमानी प्रतिनिधि साबित करने के लिए और और किस्सों की जरूरत पड़ी। तब फिर से बूढ़े ने उनकी मदद की जिसके कभी न खत्म होनेवाले किस्सों में एक शैतान हुआ करता था। तीनों धड़ों ने अपने अपने शैतान पैदा किए और उनकी समझ में जो भी बुरा था उन सब बातों को शैतान के साथ जोड़ दिया।
जल्दी ही शैतान ताकतवर हो गया और उसने अपनी करामातें दिखानी शुरू कर दी। जो लोग बूढ़े की काली दाढ़ी बनाने कि जिद में उसे पूरा का पूरा काला रंग देते थे उन्होंने बूढ़े की सफेद दाढ़ी बनानेवालों को शैतानी गिरोह करार दिया। बदले में सफेद दाढ़ी धड़ा ने काली दाढ़ी धड़ा को शैतान की औलादें करार दिया। यही नहीं सफेद दाढ़ी धड़ा और काली दाढ़ी धड़ा दोनों ने मिलकर पवित्र रोशनीवाले धड़े को शैतानी धड़ा करार दिया और कहा कि अगर ईश्वर को रोशनी इतनी ही पसंद होती तो वह रात बनाता ही नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि हमारा आसमानी अंश पवित्र बूढ़ा अक्सर अपने कमरे में दिन में भी अंधेरा करके सो जाता था। पहले दोनों धड़ों ने रोशनीवालों को तरह तरह से लानतें भेजते हुए सभी तरह की रोशनियों से अपना नाता तोड़ लिया और कहा कि रोशनियां शैतान की निशानी हैं और उनकी छाया से भी बचकर रहने की जरूरत है।
पर शैतान था कि उनका पीछा छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं था। उसने इन सभी धड़ावालों को आपस में भिड़ा दिया। वे टूट कर लड़े। कुछ मरे कुछ मारे गए। शैतान ने मरनेवालों और मारनेवालों दोनों को महान घोषित किया और उनके रास्ते को अनुकरणीय बताया।
बाद में झगड़े की एक और वजह बनी। कुछ लोगों का मानना था कि बूढ़ा फिर लौटकर आएगा तो कुछ ने कहा कि नहीं, बूढ़ा अब कभी नहीं आएगा। इस तरह से दो अलग अलग धड़े दोबारा तैयार हुए जो सफेद, काले और रोशनीवाले के समानांतर चले। अपने सुने हुए किस्सों के आधार पर कुछ रोशनी और अंधेरेवाले लोग इस पक्ष में खड़े हुए कि बूढ़ा दोबारा लौटकर आएगा। इसके खिलाफ कुछ दूसरे अंधेरे और रोशनीवालों ने हुंकारा लगाया कि अब वह कभी लौटकर नहीं आएगा जैसे कि खुद उन्होंने ही उसे कहीं बहुत गहरे दफन कर दिया हो।
जो लोग मान रहे थे कि वह दोबारा आएगा उनमें से आधे का कहना था कि वह उसी रूप में वापस आएगा जिस रूप में पिछली बार आया था। बचे हुए आधे लोगों का कहना था कि नहीं, वह इस बार नए रूप में आएगा।
इन सभी तरह के लोगों ने कहा कि विरोधियों ने अपने दिलों में शैतान को जगह दे रखी है। इसी शैतान की वजह से एक बार फिर से खूनी लड़ाइयां हुईं और कुछ नए जिंदा और मुर्दा महान पैदा हुए।
उधर बूढ़ा जो शायद कभी था ही नहीं और जिसकी दाढ़ी से गीले किस्से टपकते थे, कहीं बैठा हुआ अपना सिर धुनता था और कांप कांप जाता था।
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मनोज कुमार पाण्डेय
जन्म : 7 अक्टूबर, 1977, सिसवाँ, इलाहाबाद
शिक्षा : एम.ए. हिंदी साहित्य, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
प्रकाशन
: तद्भव, नया ज्ञानोदय, वागर्थ, हंस, वसुधा, उत्तर प्रदेश, कथाक्रम, आउटलुक तथा कादंबिनी आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रमुखता से प्रकाशित।
:- कहानियों की किताब ‘शहतूत’ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित।
सम्मान :- प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान( 2006), विजय वर्मा कथा सम्मान (2010)
मीरा स्मृति सम्मान (2011)
संप्रति : महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की साहित्यिक वेबसाइट ‘हिंदीसमयडॉटकॉम’ के लिए कार्य
पता :- हिंदीसमयडॉटकॉम प्रभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
गांधी हिल्स, मानस मंदिर, वर्धा-442001, महाराष्ट्र
मोबाइल :- 08275409685
ई-मेल :- chanduksaath@gmail.com
मनोज जी ने किस्सागो बूढ़े की मार्फत एक खास बात कहने की कोशिश की है। इस कहानी को पढ़ते हुए बहुत कुछ याद आता है। मनोज भाई और मनोज भाई को बधाई....
ReplyDeleteबेहतरीन कहानी, किस तरह मुख्य तत्व नेपथ्य में चला जाता है और मूल रूप से लड़ने का आदी इंसान गौड़ बातों को लड़ने के लिए प्रयोग करता है,इसकी बेमिसाल मिसाल है कहानी. इसे हम ईश्वर की अवधारणा से जोड़ दें, आज के कुछ विद्रोही लेखकों की स्थति से या दुनिया की किसी भी उस चीज से जहाँ किस्सों का वह पाठ निकाला जाता है जो था ही नहीं जैसे वह बूढ़ा था ही नहीं. मनोज द्वय को बधाई
ReplyDeleteबेहतरीन कहानी, किस तरह मुख्य तत्व नेपथ्य में चला जाता है और मूल रूप से लड़ने का आदी इंसान गौड़ बातों को लड़ने के लिए प्रयोग करता है,इसकी बेमिसाल मिसाल है कहानी. इसे हम ईश्वर की अवधारणा से जोड़ दें, आज के कुछ विद्रोही लेखकों की स्थति से या दुनिया की किसी भी उस चीज से जहाँ किस्सों का वह पाठ निकाला जाता है जो था ही नहीं जैसे वह बूढ़ा था ही नहीं. मनोज द्वय को बधाई
ReplyDeleteकहानी पढ़ी.. मनोजजी ने बहुत तरतीब के साथ कहानी को गढ़ा है... अच्छी लगी.. वैसे भी भाई मनोज की कुछ कहानियां पूर्व में पढ़ी हैं. उनका प्रशंसक भी हूं.. बधाई - प्रदीप जिलवाने
ReplyDeletechumma...
ReplyDeleteek sty ko kaise dhoomil kar ke naya jhuth gadha jata hai aur yathrth ka nya aaropan kiya jata hai usi ka vitan hai ye kahani. manoj ki aur achhi kahni. jode manoj ko congret.
ReplyDeleteek sty ko kaise dhoomil kar ke naya jhuth gadha jata hai aur yathrth ka nya aaropan kiya jata hai usi ka vitan hai ye kahani. manoj ki aur achhi kahni.
ReplyDeletebehtrene kahani
ReplyDeleteभाई विमलेश, विमल, दुर्गेश और शेषनाथ आप सबका बहुत बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteसंध्या जी आपको भी बहुत सारा शुक्रिया।
बहुत दिनों के बाद एक अच्छी कहानी पढ़ी. दोनों मनोज भाई का बहुत बहुत शुक्रिया.
ReplyDeleteभाई जी ,घर के बूढ़े , आँगन के पेड़ , गाँव की सरहद का पीपल , आदि सब गायब होते जा रहे हैं ! उन्ही स्मृतियों की ओर ले जाती एक बेहतरीन कहानी !
ReplyDeleteभाई जी , घर के बूढ़े , आँगन के पेड़ तथा गाँव की सरहद पर खड़े पीपल आदि सभी गायब होते जा रहे हैं , उन्हीं स्मृतियों की ओर जाती एक पगडंडी जैसी है यह कहानी !
ReplyDeleteकाफी रोचक कहानी है अगर मैं शिक्षामंत्री होता तो अविलंब इस कहानी को कक्षा दस के लिए पाठ्यक्रम में शामिल करने का फरमान जारी करता । ताकि किशोरवय में ही भारतीय राजनीति की मौलिक समझ से बच्चों को लैश किया जा सके । धन्यवद सहित
Deleteकाफी रोचक कहानी है अगर मैं शिक्षामंत्री होता तो अविलंब इस कहानी को कक्षा दस के लिए पाठ्यक्रम में शामिल करने का फरमान जारी करता । ताकि किशोरवय में ही भारतीय राजनीति की मौलिक समझ से बच्चों को लैश किया जा सके । धन्यवद सहित
Deletemanoj patel ke blogg par nayi kahani padhi.ek achhi kahani ke liye badhai.kahani us samkallen vimarsh ko siddat ke saath uthati hai jo humare samay ki sabse badi vidambana hai.wo hai ki har text swatantra hota hai aur koi vi vyakhya rachna ki galat nhi hoti.es dhaarna ke karan tamam pragatisheel aaj pratikriyavadi sabit kiye ja rahe hain.kahani ka boodha katha samrat premchand ki yaad dilata hai ki unki rachnao ke sath kya salook ho raha hai.ek khema unhe dalit virodhi bata raha to dusra unke khilaf kuch sunna nhi chahta.es beech me premchand wa unka text kahin peeche choot gaya hai sayad wo bi aaj ki durdasa dekh kar boodhe ki manah sthiti se gujar rhe honge.muktibodh ageya sabke sath yhi ho rha.waise bi aajkal sab kuch politics jo hai.sundar naration k liye fir se badhai
ReplyDeletemanojji aapke blogg par manoj ki nayi kahani padhi.ek achhi kahani ke liye badhai.kahani us samkallen vimarsh ko siddat ke saath uthati hai jo humare samay ki sabse badi vidambana hai.wo hai ki har text swatantra hota hai aur koi vi vyakhya rachna ki galat nhi hoti.es dhaarna ke karan tamam pragatisheel aaj pratikriyavadi sabit kiye ja rahe hain.kahani ka boodha katha samrat premchand ki yaad dilata hai ki unki rachnao ke sath kya salook ho raha hai.ek khema unhe dalit virodhi bata raha to dusra unke khilaf kuch sunna nhi chahta.es beech me premchand wa unka text kahin peeche choot gaya hai sayad wo bi aaj ki durdasa dekh kar boodhe ki manah sthiti se gujar rhe honge.muktibodh ageya sabke sath yhi ho rha.waise bi aajkal sab kuch politics jo hai.sundar naration k liye fir se badhai
ReplyDeleteबहुत अनोखी कहानी...आभार !
ReplyDeleteअनिता जी कहानी पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के लिए आपका आभार। भाई राजू जी, प्रेमनंदन जी, जुगाली जी और अरुणेश जी आप सबके प्रति भी प्यार और आभार
ReplyDeleteकुछ हट कर लगी। लगे रहो मनोज भाई।
ReplyDeleteबढिया है अन्धविश्वासो के उपर जोरदार प्रहार
ReplyDeleteयह असमाप्त कहानी आदिम युग की सत्य घटना पर आधारित है ! बहुत शानदार प्रस्तुति ! बधाई आप दोनों को !
ReplyDeleteभाई राजेश जी, नवनीत जी और मिसिर जी आप सबका बहुत सारा आभार...
ReplyDeleteधर्म संस्थापना की इस बेहतरीन कहानी को पहले भी पढ़ा था पुनः पढ़ा . बिंबो का बेहतरीन प्रयोग .
ReplyDeleteपुनः बधाई !