Saturday, February 18, 2012

अरुंधती राय : राष्ट्रीय सुरक्षा और भारतीय मीडिया

प्रस्तुत है मानव भूषण के साथ अरुंधती राय की बातचीत के संपादित अंश... 











राष्ट्रीय सुरक्षा और भारतीय मीडिया : अरुंधती राय 
(अनुवाद/प्रस्तुति : मनोज पटेल)  

मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी भी तरह के प्रतिबंध के खिलाफ हूँ. एक बार प्रतिबंध लग जाने के पश्चात उनकी व्याख्याएं सामने आने लगती हैं और ये व्याख्याएं हमेशा राज्य या सत्ता के पक्ष में होती हैं. इसलिए मैं पूरी तरह से प्रतिबंधों के खिलाफ हूँ. 

यह कहना सही नहीं होगा कि फासीवाद की शुरूआत भाषणों से होती है. विभिन्न देशों में तमाम वजहों से फासीवाद की शुरूआत हुई. भाषण तो बस अभिव्यक्ति का एक तरीका था. मुझे नहीं लगता कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी तरह की पाबंदी लगाई गई होती तो फासीवाद न आया होता. हिन्दुस्तान में नफरत फैलाने वाले भड़काऊ भाषण समस्या नहीं हैं. समस्या तो तब आती है जब साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं को अंजाम दिया जाता है, जब राज्य खुशी-खुशी हत्याओं और सामूहिक हत्याओं को प्रायोजित करता है और फिर कुछ नहीं होता. 

समस्या अभिव्यक्ति या भाषण नहीं है, समस्या तो कार्रवाई की है. यदि आप कहें कि आप ऐसे समाज में रहते हैं जिसमें हत्याओं, सामूहिक हत्याओं, लोगों को ज़िंदा जला देने या बलात्कार जैसे अपराधों के लिए क़ानून है, और आप इनपर कोई कार्रवाई नहीं करते, उसके बाद आप भड़काऊ भाषण पर क़ानून के माध्यम से काबू पाना चाहते हैं तो सीधी सी बात है कि क़ानून का गलत इस्तेमाल किया जाएगा. उदाहरण के लिए यदि मैं यह कहूं कि कश्मीर में सात लाख फौजियों को तैनात कर देना गलत है, तो कोई यह कह सकता है कि यह भड़काऊ भाषण है. 

मुझे लगता है कि भारत में कुछ चीजें घटित हो रही हैं. एक तो यह कि यहाँ हल्ला-गुल्ला बहुत ज्यादा है. शायद इसलिए कि हमारे देश में दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा टीवी चैनल मौजूद हैं. इन टीवी चैनलों को लगातार बड़े-बड़े कारपोरेशन हथियाते जा रहे हैं जिनका कि उनमें प्रतिकूल हित है, क्योंकि ये वही निगम हैं जो कि दूरसंचार आदि क्षेत्रों में निजीकरण के चलते बहुत पैसे बना रहे हैं. अब वे या तो सीधे-सीधे या विज्ञापन के माध्यम से पूरी तौर पर मीडिया को नियंत्रित करने की स्थिति में हैं. तो यह तो हुआ नियंत्रण का पहला तरीका जो कि देखा जा रहा है.   

नियंत्रण का दूसरा तरीका वह है जब राज्य खुद ही अपनी मर्जी के खिलाफ बोल रहे लोगों के पीछे पड़ जाता है. और तीसरा यह कि बड़े पैमाने पर सेंसरशिप की आउटसोर्सिंग की जाने लगी है. राजनीतिक दल भाड़े के बदमाशों से अपना गुस्सा निकलवाते हैं. ये भाड़े के बदमाश लोगों की पिटाई, घरों पर हमले और तोड़-फोड़ करते हैं और ऐसा माहौल बना देते हैं कि कोई बात कहने के पहले आप दो बार सोचना शुरू कर देते हैं और वो भी डर की वजह से. 

यह आउटसोर्सिंग सरकार के इस भ्रम को बनाए रखने में मदद करती है कि वह लोकतांत्रिक है और स्वतंत्र अभिव्यक्ति की इजाजत देती है. जबकि सच्चाई यह है कि इन सभी तरीकों से नियंत्रण ही स्थापित किया जाता है, निगमों के माध्यम से, भाड़े के बदमाशों के माध्यम से और अदालतों के माध्यम से भी. राजनीतिक दल न्यायपालिका का भी बड़े पैमाने पर दुरूपयोग करते हैं. उदाहरण के लिए जब भी मैं बोलती हूँ मेरे खिलाफ तमाम मुक़दमे दाखिल किए जाते हैं, ताकि आखिरकार वे आपको डरा सकें या इतना थका दें कि आप अपना मुंह बंद रखने के लिए मजबूर हो जाएं. और अब तो वे इंटरनेट को भी काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं.   

सरकार इस वजह से इंटरनेट पर शिकंजा कसना चाह रही है क्योंकि बड़े खिलाड़ियों को लगने लगा है कि भले ही उन्होंने टीवी और अखबारों को काबू में रखने की व्यवस्था बना ली है मगर इंटरनेट अभी भी जनता को ऐसा स्थान उपलब्ध करवा रहा है जहां कि वह वो बात कह सकती है जो कही जानी चाहिए. मगर केवल मीडिया ही नहीं बल्कि तमाम दीगर मसलों में भी असली समाधान तभी निकलेगा जब कारोबार के प्रतिकूल स्वामित्व को, क्रास ओनरशिप को ख़त्म किया जाए. बड़े-बड़े कारपोरेशन जो धीरे-धीरे जल, विद्युत्, खनिज, दूरसंचार आदि सभी क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं, उन्हें आप इस बात की इजाजत नहीं दे सकते कि वे मीडिया को भी इस तरह से नियंत्रित करें. इस बाबत कोई क़ानून बनाया जाना चाहिए जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि मीडिया को इस तरह से नियंत्रित नहीं किया जा सकता. 

अपने किसी लेख में मैनें जिक्र किया है कि छत्तीसगढ़ के एस पी ने मुझसे कहा, "जमीन खाली करवाने के लिए वहां पुलिस या फ़ौज भेजने की जरूरत नहीं है. आपको बस सभी आदिवासी घरों में एक टीवी सेट लगा देना चाहिए. इन लोगों के साथ समस्या यह है कि ये लोग लालच करना नहीं जानते." तो यह कोई सतही खेल नहीं बल्कि बहुत गहरा धंधा है. वह धंधा जो टेलीविजन पर हो रहा है और जो बेचा जा रहा है. सिर्फ आलू के चिप्स या एयर कंडिशनर ही नहीं बल्कि एक पूरा दर्शन ही बेचा जा रहा है.      

मणिपुर के जिस सशस्त्र सेना विशेष अधिकार अधिनियम के खिलाफ इरोम शर्मिला अनशन कर रही हैं वह सेना के गैर-कमीशंड अधिकारियों को भी केवल शक की बिना पर गोली चलाने की इजाजत देता है. स्त्रियों के साथ बलात्कार और उनकी हत्या करने के लिए मणिपुर में इस क़ानून का दुरूपयोग होता रहा है. मगर निरस्त करने की कौन कहे इस क़ानून का क्षेत्राधिकार बढ़ाकर नागालैंड, असम और कश्मीर तक में कर दिया गया है. आज अगर छत्तीसगढ़ में सेना को अभी तक तैनात नहीं किया गया है तो इसलिए क्योंकि सेना तब तक तैनात होने से इनकार करेगी जब तक कि उसे ऐसे विशेष अधिकार क़ानून का संरक्षण और उन्मुक्ति न हासिल हो. 

यदि आप विदेशी विद्वान् या पत्रकार हैं तो आपको भारत आने के लिए सेक्योरिटी क्लीयरेंस की जरूरत पड़ेगी, अगर आप कारोबारी हैं तो ऎसी कोई जरूरत नहीं. यदि आपको कोई खदान खरीदनी या बेचनी है तो बढ़िया है मगर यदि आप विद्वान या पत्रकार हैं तो सेक्योरिटी क्लीयरेंस लेकर आईए. और ठीक इसी समय भारत में साहित्य महोत्सवों का यह सिलसिला चल पड़ा है. दस साल पहले सौन्दर्य प्रतिस्पर्धाओं की बाढ़ सी आई थी और आज साहित्य महोत्सवों की बाढ़ आई हुई है. जहां भी आप जाएं आप पाएंगे कि खनन कम्पनियां, बड़े निगम और सरकार साहित्य महोत्सवों को प्रायोजित कर रही हैं. और आप लेखकों को आते-जाते देखते हैं. मुझे नहीं पता कि वे किस तरह के वीजा पाते हैं. मुझे नहीं लगता कि उन्हें किसी तरह के सेक्योरिटी क्लीयरेंस की जरूरत पड़ती है. तो इस तरह के अभिव्यक्ति की आजादी के झूठे जश्न भी होते हैं. तो आज हम 'सहमति-निर्माण' से बहुत आगे की अवस्था में पहुँच गए हैं. अब हमारे पास असहमति-निर्माण, ख़बरों का निर्माण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ऐसा रस्मीकरण है, जहां कुछ भी सुनना मुहाल है.   

देखिए, जैसे हमें यह समझने में बहुत ऊर्जा लगानी पड़ रही है कि क्या चल रहा है, उसी तरह से उन्हें भी यह छद्मावरण बनाए रखने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही है कि यह एक महान लोकतंत्र वगैरह है. मीडिया को चुप कराने के लिए जो यहाँ हो रहा है वह उससे बिल्कुल अलग है जो चीन या अन्य तानाशाही देशों में हो रहा है. मुझे लगता है कि यह समझदारी की लड़ाई है और यह अपनी चालाकी में ब्राह्मणवादी है. मगर यह मनुस्मृति के जमाने से बहुत आगे बढ़ चुकी है जब दलित व्यक्ति के कुछ सुन लेने पर उसके कान में सीसा डाल दिया जाता था. यह आगे भले बढ़ गई है मगर भावना उतनी अलग नहीं है. एक लोकतंत्र नजर आने, इतना शानदार मीडिया और बाक़ी सब ताम-झाम होने से निकले फायदे बैलेंस शीट में भी दिखाई पड़ते हैं. भारत को एक लोकतंत्र नजर आने के बहुत फायदे होते हैं, तभी तो तिब्बत या मध्य-पूर्व के जनउभार की जितनी चर्चा होती है, उसकी आधी भी चर्चा कश्मीर की नहीं होती. तो यदि मुख्यधारा मीडिया एक जनउभार की सूचना बहुत उत्साहपूर्वक दे और दूसरे के बारे में खामोश रहे तो इसे आपको समझने की जरूरत है -- ऐसा क्यों हो रहा है? यहाँ कहानी क्या है? 
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1 comment:

  1. नीर-क्षीर विवेक का अप्रतिम उदहारण है अरुंधती राय का यह लेख ! बहुत प्रभावित करती है उनकी पैनी दृष्टि ,विश्लेषण और स्थिति को प्रस्तुति करने की बेबाकियत ! आभार मनोज जी ,बहुत कीमती लेख है !

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