प्रिय कवि-कथाकार उदय प्रकाश जी ने आज अपने इस फेसबुक नोट में मुझे टैग किया. मुझे लगा कि इसे हिन्दी में भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
(अनुवाद : मनोज पटेल)
वह जनवरी की एक सर्द सुबह थी. वाशिंगटन के एक मेट्रो स्टेशन पर बैठा एक शख्स अचानक वायलिन बजाने लगा. तकरीबन पैंतालिस मिनट तक वह बाख की छः रचनाएं बजाता रहा. गणना की गई कि व्यस्त समय होने की वजह से उस दौरान स्टेशन से ११०० लोग गुजरे जिनमें से ज्यादातर की मंजिल अपना दफ्तर था.
तीन मिनट बाद एक अधेड़ शख्स ने गौर किया कि एक वादक कुछ बजा रहा है. उसने अपनी रफ़्तार कम की, कुछ पलों के लिए ठिठका और फिर विलम्ब से बचने के लिए तेजी से चला गया.
एक मिनट बाद वायलिन वादक को बख्शीश के रूप में पहला डालर मिला : एक महिला ने पैसे फेंके और बिना रुके आगे बढ़ गई.
कुछ मिनट और बीते, उसे सुनने के लिए एक व्यक्ति ने दीवार की टेक ली मगर अपनी घड़ी पर निगाह डालकर वह फिर चल पड़ा. साफ़ था कि उसे दफ्तर के लिए देर हो रही थी.
सबसे ज्यादा तवज्जो देने वाला इंसान तीन साल का एक बच्चा था. हड़बड़ी में दिख रही उसकी माँ उसे खींचे जा रही थी, मगर वायलिन वादक को देखने के लिए बच्चा रुक गया. आखिरकार उसकी माँ ने थोड़ा जबरदस्ती की और बच्चा चल तो पड़ा मगर पूरे समय वह गर्दन घुमाए वायलिन वादक को देखता ही रहा. कुछ और बच्चों ने भी ऐसा ही किया और बिना किसी अपवाद के सभी माता पिता उन्हें जबरन वहां से ले गए.
उन पैंतालिस मिनटों के दौरान केवल छः लोग थोड़ी देर के लिए रुके. करीब २० लोगों ने अपनी सामान्य रफ़्तार से चलते-चलते उसे पैसे दिए. उसे कुल ३२ डालर मिले. जब उसने वायलिन बजाना बंद किया और शान्ति छा गई तो किसी ने ध्यान भी नहीं दिया. किसी ने ताली नहीं बजाई और न ही किसी ने सम्मान ही प्रदर्शित किया.
कोई इस बात को जानता नहीं था मगर वह वायलिन वादक दुनिया के सबसे काबिल संगीतज्ञों में से एक जोशुआ बेल थे. अभी-अभी वे आज तक की सबसे जटिल धुनों को साढ़े तीन मिलयन डालर की एक वायलिन पर बजाकर हटे थे.
स्टेशन पर इस वादन के दो दिन पहले जोशुआ ने बोस्टन के जिस खचाखच भरे थिएटर में कार्यक्रम दिया था वहां एक टिकट की औसत कीमत १०० डालर थी.
यह एक सच्ची घटना है. मेट्रो स्टेशन पर जोशुआ का यह अप्रकट वादन वाशिंगटन पोस्ट द्वारा लोगों की समझ, रूचि और प्राथमिकताओं पर एक सामाजिक प्रयोग के तौर पर आयोजित किया गया था. उसकी रूपरेखा थी : एक आम जगह पर, एक अनुपयुक्त समय पर : क्या हम सौन्दर्य को महसूस करते हैं? क्या हम उसे सराहने के लिए रुकते हैं? क्या हम एक अनपेक्षित सन्दर्भ में योग्यता को मान्यता प्रदान करते हैं?
इस अनुभव के संभावित निष्कर्षों में एक यह भी हो सकता है :
यदि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञों में से एक के द्वारा बजाए जा रहे, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संगीत को एक पल ठहरकर सुनने की फुर्सत हमारे पास नहीं है तो हम और क्या कुछ गँवा रहे हैं?
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'...to get the most out of life, we must paddle slowly.', but we lack the sensitivity to materialise it....
ReplyDeletean apt experiment, with appropriate deduction!!!
वाह .गजब
ReplyDeleteठीक उस वक़्त जब 'सृजन की सार्थकता' पर बहस पढ़कर उठी हूँ यह टुकड़ा पढना ठहर जाना है...वहीँ वायलिन बजाने वाले के पास कहीं.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...
ReplyDeleteऔर कुछ कहना लाज़मी नहीं..
शुक्रिया.
स्थान और समय का महत्व..धुन अच्छा लगा....आभार.....!!
ReplyDeleteमनोज जी, इस भाग-दौड़ की जिन्दगी में हम बहुत कुछ खो रहे हैं।
ReplyDeleteमनोज जी पहले तो आपको बहुत बहुत धन्यवाद , यही जमीनी हकीकत है मनोज जी लोग सुन्दरता को नहीं ग्लैमर को पसंद करते है ,पुनः धन्यवाद
ReplyDeleteमनोज जी पहले तो आपको बहुत बहुत धन्यवाद , यही जमीनी हकीकत है मनोज जी लोग सुन्दरता को नहीं ग्लैमर को पसंद करते है ,पुनः धन्यवाद
ReplyDeleteकला को सचमुच सराहने वाले लोग बहुत कम हैं...जिन इमारतों को देखने लोग दूर दूर से आते हैं उसी शहर के लोग एक बार भी उसे देखने नहीं जाते...सब मन का आरोपण है.
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट
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