Tuesday, February 7, 2012

जिबिग्न्यु हर्बर्ट : मुर्गी कुछ ख़ास कवियों की याद दिलाती है

जिबिग्न्यु हर्बर्ट की एक और कविता... 

 
मुर्गी : जिबिग्न्यु हर्बर्ट 
(अनुवाद : मनोज पटेल) 

मुर्गी इस बात की बेहतरीन मिसाल है कि इंसानों के साथ लगातार रहने का क्या नतीजा हो सकता है. वह एक पक्षी का हल्कापन और खूबसूरती पूरी तरह से गँवा चुकी है. एक बहुत बड़े हैट के रूप में उसकी पूँछ उसके पुट्ठों पर भद्दे तरीके से पड़ी रहती है. उसके परमानंद के दुर्लभ क्षण, जब वह एक टाँग पर खड़ी होकर अपनी गोल आँखों को झिल्लीदार पलकों से चिपका लेती है, गैरमामूली ढंग से घिनौने लगते हैं. ऊपर से उसका भोंड़ा गीत, उसकी गला-फाड़ मिन्नतें एक ऎसी चीज की खातिर जो अकथनीय रूप से हास्यास्पद है : एक गोल, सफ़ेद, गंदगी में लिथड़ा हुआ अंडा. 

मुर्गी कुछ ख़ास कवियों की याद दिलाती है. 
                                                     :: :: :: 
Manoj Patel Blog, ज़्बीग्न्येव हेर्बेर्त 

2 comments:

  1. मुर्गी कुछ खास कवियों की याद दिलाती है...

    वाह...बेजोड़...लाजवाब रचना...

    नीरज

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